Wednesday, May 8, 2013

लोकतंत्र के “अँधेरे में” आधी सदी

लोकतंत्र के "अँधेरे में" आधी सदी


अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे

उठाने ही होंगे।

तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।

पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार

तब कहीं देखने मिलेंगी बाँहें

जिसमें कि प्रतिपल काँपता रहता

अरुण कमल एक

अगले बरस मुक्तिबोध की कविता अँधेरे में के प्रथम प्रकाशन के पचास बरस पूरे हो रहे हैं। कविता क्या है, दमनकारी सैनिक सत्ता के वर्चस्व, उसके साथ आर्थिक बौद्धिक और सांस्कृतिक एजेंसियों के गठजोड़ और इस घुटन भरे माहौल में बाहर भीतर लगातार जूझते और टूटते हुये आदमी का दुःस्वप्न है। पिछली आधी सदी में हम ने इस दुःस्वप्न को हकीकत में बदलते देखा है।

समय जैसे कविता को रचता हैक्या कविता भी समय को रचती है ? अँधेरे में ने भारतीय कविता को –खास तौर पर –हिन्दी कविता को किस तरह बदला है ? क्या अँधेरे में ही वह मशाल भी हैजो हमें अँधेरे के पार ले जायेगी ?

इन सभी सवालों पर मिलजुल कर बात करने के लिए आइये।

विचार -गोष्ठी — मैनेजर पाण्डे, वीरेन डंगवाल, मंगलेश डबराल,  अर्चना वर्मा, रामजी राय और अशोक भौमिक

पोस्टर -प्रस्तुति– अशोक भौमिक

काव्य- आवृत्ति — दिनेश कुमार शुक्ल और राजेश चन्द्र

चर्चा

दिनाँक 13 मई 2013

चाय – शाम पाँच बजे , गोष्ठी -शाम साढ़े पाँच बजे

जगह – गांधी शांति प्रतिष्ठान, दीनदयाल उपाध्याय रोड, (आईटीओ), नई दिल्ली- 110002

 

संपर्क :

आशुतोष कुमार

संयोजककविता समूहजन संस्कृति मंच

9953056075

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