Wednesday, October 20, 2010

ममता बनर्जी का हाल एक घरेलू झगड़ालू औरत जैसा है

ममता बनर्जी का हाल एक घरेलू झगड़ालू औरत जैसा है

http://mohallalive.com/2010/10/20/vishwajit-sen-react-on-mamta-maoist-alliance/

20 October 2010 6 Comments

विश्‍वजीत सेन। पटना में रहने वाले चर्चित बांग्ला कवि व साहित्यकार। पटना युनिवर्सिटी से इंजीनियरिंग की पढ़ाई। बांग्ला एवं हिंदी में समान रूप से सक्रिय। पहली कविता 1967 में छपी। अब तक 6 कविता संकलन। पिता एके सेन आम जन के डॉक्‍टर के रूप में मशहूर थे और पटना पश्‍िचम से सीपीआई के विधायक भी रहे।

♦ विश्वजीत सेन

सीपीएम समर्थक जनता ने जुलूस की शक्‍ल में लालगढ़ में प्रवेश किया। इसे महज एक छोटी घटना नहीं समझा जाना चाहिए। विगत डेढ़ वर्षों से संविधान को धता बताकर ममता-माओवादी गठजोड़ ने जंगलमहल में जो आतंक राज कायम कर रखा था, अब उसके पटाक्षेप का समय आ गया है।

क्रांति खिलवाड़ नहीं है। वह एक लंबी प्रक्रिया है, जिसे एक पल में हासिल नहीं किया जा सकता। उसके लिए धीरज रखना पड़ता है। पराजय और क्षय की लंबी अंधेरी गली से गुजरना पड़ता है। कभी-कभी अपनों से भी वैचारिक स्तर पर अलग होना पड़ सकता है। अपनी आंखों के सामने आंदोलन का पूर्ण विध्वंस भी देखना पड़ सकता है और फिर ककहरे से शुरू करना पड़ सकता है। ऐसी अनगिनत परिस्थितियों के बीच जिस चीज पर अपनी प्रतिबद्धता बरकरार रखनी पड़ती है, वह है राजनीतिक ईमानदारी और यह समझ कि बुर्जुवा नेतृत्व के कंधे पर सवार होकर क्रांति नहीं की जा सकती। ठीक यहीं माओवादी पिट गये।

आज माओवादी आंदोलन बहुत तेजी से एक खडंहर में तब्दील हो रहा है। वह भी ऐसा खंडहर, जिस पर आगे केवल विशाक्त पौधे ही उगेंगे, उसके नजदीक जाने से भी लोग डरेंगे। जिन आकाओं ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर माओवाद को प्रोत्साहित किया था, उनकी मंशा भी शायद यही थी। क्रांति का ऐसा वीभत्स चित्र प्रस्तुत करो कि लोग उसे देखते ही सिहर उठे। फिर कोई भूल से भी क्रांति का नाम न ले। और आकाओं का राज बरबस स्थायी हो जाए।

यहां, सवाल के इस मुकाम पर पहुंचकर, बुद्धिजीवियों की भूमिका भी संदेह के घेरे में आती है। एक बड़ी आबादी विगत डेढ़ वर्षों से लालगढ़ के बाहर थी। जान, माल, खेती, मवेशी सब कुछ जहां का तहां छोड़कर वह आबादी विस्थापित जीवन जीने को मजबूर थी, लेकिन किसी बुद्धिजीवी ने इस विषय पर एक शब्‍द नहीं कहा। आश्‍चर्य है! यही बुद्धिजीवी मानवाधिकार मंचों पर माओवादियों पर 'अत्याचार' के प्रश्‍न पर जार-जार रोते दिखाई पड़ते हैं। शुरू से उन्होंने इस सवाल पर जितने आंसू बहाये हैं, उसको धारण करने लायक बर्तन अब तक इस देश में नहीं बना है। विस्थापन के सवाल पर लगातार बोलने वाली पार्टियां लगभग 15-20 हजार लागों के विस्थापन पर चुप क्यों रहीं? यही 15-20 हजार लोग लालगढ़ में अपने घर लौटे हैं।

ममता बनर्जी की महत्वाकांक्षा सीमित है। प बंगाल अनकी जूतियों तले रहे, बस। इतना ही हो जाए, तो वो फूल कर बाग-बाग हो जाएंगी। देश में क्या हो रहा है, अर्थतंत्र में क्या हो रहा है, यहां तक कि रेल मंत्रालय में क्या हो रहा है, इससे उन्हें कुछ भी लेना-देना नहीं है। उनकी स्थिति एक घरेलू झगड़ालू औरत जैसी है, जो अपने जेठ के परिवार को नीचा दिखाकर खुश रहती है, उसे और कुछ नहीं चाहिए। लेकिन माओवादियों को क्या कहें? इस नीच, गंदी महत्वाकांक्षा की बलिवेदी पर खुद को जो कुर्बान कर रहे हैं, क्या उन्हें हम क्रांतिकारी कह सकते हैं? विगत डेढ़ वर्षों में जंगलमहल में सैकड़ों लोगों की जान गयी है। मगर क्यों? इसलिए की ममता बनर्जी प बंगाल की मुख्यमंत्री बनें। वैसा अगर हो भी गया तो क्या हो जाएगा? क्या धरती पर स्वर्ग उतर जाएगा?

माओवादियों का कहना है कि प बंगाल में विगत 30-31 वर्षों से जो शासन है, उससे जनता निर्धन हुई, आतंकग्रस्त हुई, अवदमित हुई। हम इस आरोप को सिरे से खारिज नहीं करते। वाममोर्चे के शासनकाल के भी नकारात्मक पक्ष हैं। लेकिन नहीं भूलना चाहिए कि इसी शासन ने भूमिहीनों को जमीन पर कब्जा दिलाया, और वह भी किसी बड़े खून-खराबे के बगैर। यह कम बड़ी उपलब्धि नहीं है। शिक्षा का विस्तार हुआ, अल्पसंख्यक सुरक्षित रहे, इन उपलब्धियों को क्या हम नकार दें? हां, अवश्‍य ही यह बात है कि अपेक्षित हद तक विकास नहीं हुआ। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि केंद्र सरकारें प बंगाल सरकार की शुभेच्छु नहीं रही हैं। हर समय, प बंगाल को विकास के लिए अपेक्षित राशि भी नहीं मिली। सीमित साधन के सहारे प बंगाल सरकार ने जो कुछ भी किया, उसे अपर्याप्त नहीं कहा जा सकता।

जो विगत डेढ़ वर्षों से घर रहते बेघर थे, वे अब लालगढ़ लौट आये हैं। लेकिन चौकन्ना रहने की जरूरत आज भी है और आगे भी रहेगी। माओवादी प बंगाल के नक्‍शे से गायब नहीं हो गये हैं। आगे उनका दुस्साहसी खेल किस स्वरूप में दिखेगा, यह कौन कह सकता है? आज, पहले से अधिक सतर्क रहने की जरूरत है, इसमें जरा सी भी ढील घातक सिद्ध हो सकती है।

साथ ही साथ, जनता में अपने विश्‍वास को और सुदृढ़ और गहरा करने की जरूरत है। यह जनता ही है, जो इतिहास का हर अध्याय लिखती है। आज यह समझने की जरूरत है कि जंगलमहल में जनता के प्रतिरोध के कारण ही माओवादी पीछे हट रहे हैं, उसमें अर्द्धसैनिक बलों की भूमिका गौण है। जनता के प्रतिरोध को और धारदार बनाने की जरूरत है, सही विचारधारा से लैस करने की जरूरत है, जिससे कि क्रांति के नाम पर वे फिर किसी छलावे में नहीं आएं। तभी प बंगाल को माओवादी व्याधि से पूरी तरह से मुक्त करना संभव होगा।

लक्ष्य दुरूह है, लेकिन उसे प्राप्त किया जा सकता है।


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Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/

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