| Tuesday, 07 May 2013 09:50 |
| गणपत तेली राज थापर की किताब के सहारे शंकर शरण ने कई आरोप लगाए, लेकिन रोमिला थापर, इरफान हबीब, सुवीरा जायसवाल, डीएन झा, केएन पणिक्कर आदि इतिहासकारों के बारे में अयोध्या विवाद प्रसंग में संघ परिवार की प्रचार सामग्री में कई अपमानजनक बातें कही गर्इं। बाल ठाकरे, वरुण गांधी, प्रवीण तोगड़िया आदि के भाषणों की घृणास्पद भाषा पर तो कई बार विवाद उठे हैं और अदालतों में मामले भी चल रहे हैं। यहां तक कि 'पांचजन्य', 'आॅर्गनाइजर', 'सामना' में तो खुलेआम अपमानजनक भाषा इस्तेमाल की जाती है। 'पांचजन्य' में अफ्रीकी लोगों को 'काले हब्शी', मुसलमानों को 'आतंकवादी' कहा जाता है। इनके लिए 'विवाह और परिवार की मर्यादा में ही स्त्री सुरक्षा है'। दक्षिणपंथ के पक्ष से उक्त बातें बार-बार इसलिए दोहराई जाती हैं कि मार्क्सवाद के संबंध में भ्रम की स्थिति बनाए रखी जा सके। असल में मार्क्सवाद के इस विरोध का मूल कारण यह है कि दक्षिणपंथी लफ्फाजियों और कारगुजारियों को बेनकाब करने वाली तमाम वैज्ञानिक और तार्किक धाराएं राजनीतिक रूप से मार्क्सवाद के साथ खड़ी होती हैं। राजनीतिक स्तर पर मार्क्सवाद फासीवाद और दक्षिणपंथ के लिए हमेशा ही चुनौती रहा है। दूसरी तरफ, यह दक्षिणपंथ हमेशा ही समाज के शोषक और प्रतिक्रियावादी तबके से नाभिनालबद्ध रहा है। दूसरे विश्वयुद्ध के समय फासीवादियों की पूंजीपतियों के साथ मिलीभगत अब कोई छिपी बात नहीं रह गई है। फासीवादियों का इस्तेमाल कर पूंजीवादियों ने यूरोप, खासकर इटली-जर्मनी के मजदूर आंदोलनों और अन्य संगठनों का सफाया कराया। निकट अतीत में महाराष्ट्र इसका उदाहरण है, जहां पूंजीपति वर्ग के हित में शिवसेना का इस्तेमाल कर ट्रेड यूनियनों का खात्मा करवाया गया और दत्ता सामंत और कृष्णा देसाई जैसे कई मजदूर नेताओं की हत्या करवाई गई। दरअसल, मार्क्सवादी सिद्धांतों से प्रेरणा लेने वाले सामाजिक और आर्थिक आंदोलन उन उच्च वर्गों के लिए दिक्कत पैदा करते हैं, जो दक्षिणपंथ के आधार हैं। स्वाभाविक है कि अगर मजदूर आंदोलन मजबूत होंगे तो पूंजीपतियों को नुकसान होगा और सामाजिक स्तर पर दबाए गए समुदाय मजबूत होंगे तो परजीवी ब्राह्मणवादी संस्कृति को चुनौती मिलेगी। अकादमिक स्तर पर मार्क्सवाद क्या, कोई भी तार्किक विचारधारा दक्षिणपंथी लफ्फाजियों को बेनकाब कर सकती है, लेकिन राजनीतिक रूप से मार्क्सवाद ही इन्हें चुनौती पेश करता है। इसलिए दक्षिणपंथ के प्रवक्ताओं की हमेशा यह रणनीति रहती है कि वे सिद्धांतों से भटके मार्क्सवादी नेताओं और व्यवस्थाओं की विसंगतियों को मार्क्सवादी विचारधारा की ही विसंगतियां बता कर प्रस्तुत करें, जिससे आम लोगों में भ्रम पैदा किया जा सके। शंकर शरण के लेख का निमित्त भी इतना ही है। और, शंकर शरण ने कुछ नया नहीं कहा। उनके लेख में वे ही बातें हैं जो न जाने कितनी बार वे स्वयं और दक्षिणपंथ के अन्य प्रवक्ता कह-लिख चुके हैं। शीतयुद्ध के जमाने में सोवियत संघ के विपक्ष और पूंजीवादी ताकतों द्वारा अपनाई गई यह रणनीति न केवल पुरानी पड़ गई है, बल्कि इनके आरोपों पर कई बहसें हो चुकी हैं। मार्क्सवाद के नवीन उभारों ने न केवल दक्षिणपंथ को सीमित किया है, बल्कि अपने इतिहास से सीखा भी है। अकारण नहीं है कि बोरिस येल्तसिन ने जिस देश में कम्युनिस्ट पार्टी की गतिविधियों को प्रतिबंधित किया था, बीस साल बाद आज सीपीएसयू की उत्तराधिकारी मानी जाने वाली कम्युनिस्ट पार्टी आॅफ रशियन फेडरेशन राष्ट्राध्यक्ष के चुनाव में दूसरे नंबर पर रही। हाल की आर्थिक मंदी के दौर में मार्क्स की लोकप्रियता में वृद्धि हुई और उनकी किताबों के कई नए संस्करण निकले। पुतिन के शासनकाल में स्तालिन की लोकप्रियता में बढ़ोतरी हुई है। लातिन अमेरिका, नेपाल आदि देशों में भी मार्क्सवाद लोकप्रिय हो रहा है। मार्क्सवादी आंदोलन भी मजदूर-किसान वर्ग के साथ-साथ महिला, जाति, संस्कृति, पर्यावरण आदि सवालों से जुड़ कर व्यापक हुए हैं। ये सब मुख्यत: सोवियत संघ के पतन के बाद और उदारीकृत अर्थव्यवस्था के दौर में हुए विकास हैं। ये ऐसे विकास हैं जो मार्क्सवाद की नवीन व्याख्या कर रहे हैं और उसे नए आयाम दे रहे हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि इनका तोड़ न तो पूंजीवादी ताकतों के पास है और न ही फासीवादी दक्षिणपंथ के पास। इसलिए मार्क्सवाद के ये अंध विरोधी पीछे रह गए हैं और आज भी शीतयुद्धकालीन पुरानी रणनीतियों और घिसी-पिटी लफ्फाजियों का ही सहारा लेने का प्रयास कर रहे हैं। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/44037-2013-05-07-04-21-00 |
Wednesday, May 8, 2013
लफ्फाजियों के खंडहर
लफ्फाजियों के खंडहर
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