Wednesday, May 8, 2013

लफ्फाजियों के खंडहर

लफ्फाजियों के खंडहर

Tuesday, 07 May 2013 09:50

गणपत तेली 
जनसत्ता 7 मई, 2013: चीन से प्रकाशित एक छोटी-सी खबर के बहाने दक्षिणपंथ के प्रवक्ता शंकर शरण ने लफ्फाजियों से भरे 'चिड़ियाखाने में मार्क्सवाद' (3 मई) लेख में एक बार फिर मार्क्सवादियों के बारे में अनर्गल लिखा। चिड़ियाघर के कर्मचारियों की नियुक्ति में मार्क्सवाद का ज्ञान पूछा जाना उन्हें इतना हास्यास्पद लगा कि पूरे लेख में उन्होंने चिड़ियाघरों को ही हास्यास्पद बना दिया। उन्होंने 'कम्युनिस्टों के दमन' को चिड़ियाघर के समकक्ष रखा। वैसे, आदिवासियों को वनवासी कहने वालों से यह उम्मीद भी नहीं की जा सकती कि वे चिड़ियाघर को दमन का पर्याय न मानें। जहां तक बात चीन की राजनीतिक व्यवस्था की है तो वहां मार्क्सवाद का नाम भर बचा है, पूरी व्यवस्था पूंजीवादी ही है। यहां तक कि कई मार्क्सवादी समूहों में भी चीन को मार्क्सवादी नहीं माना जाता है। इसलिए चिड़ियाघर के कर्मचारियों की नियुक्ति में मार्क्सवाद की शर्त के शायद ही कोई मायने हो।  
शंकर शरण के लिए चीन की उक्त घटना एक संदर्भ मात्र थी, इसके बहाने उन्हें मार्क्सवादी व्यवस्थाओं और नेताओं के खिलाफ परंपरागत दक्षिणपंथी लफ्फाजियां व्यक्त करने का एक और मौका मिल गया। वस्तुत: इसमें नया कुछ नहीं है, दशक भर पहले छपी पुस्तक 'मार्क्सवाद के खंडहर' की सामग्री को ही उन्होंने मोटा-मोटी दोबारा प्रस्तुत कर दिया है। भारत में संघ परिवार के लोग सोवियत संघ और लेनिन-स्तालिन और अन्य साम्यवादी नेताओं को गाहे-ब-गाहे गालियां देते रहते हैं। 
अंधाधुंध मार्क्सवाद-विरोध में लगे ये लोग यह कभी नहीं बताते थे कि आज दक्षिण अमेरिका में मार्क्सवादी व्यवस्था का उभार हो रहा है; वेनेजुएला ने चावेज के नेतृत्व में सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा की नायाब मंजिलें प्राप्त की हैं; क्यूबा अपनी बेमिसाल स्वास्थ्य सेवाएं पूरे विश्व को दे रहा है, यहां तक कि अमेरिका में भी केटरीना संकट के समय क्यूबा के डॉक्टर पहुंचे थे। नेपाल में राजतंत्र को उखाड़ कर लोकतंत्र की जमीन भी मार्क्सवादी ही तैयार कर रहे हैं; भारत सहित दक्षिण एशिया के कई सामाजिक उभारों में मार्क्सवाद प्रेरक बना हुआ है। 
इतिहास की बात करें तो लेनिन द्वारा स्थापित व्यवस्था ही थी जिसने पहली बार रूस के किसानों को जमींदारों से जमीन दिलाई और मजदूरों को अपने हक दिलाए। जब लेनिन का नेतृत्व क्रांति कर रहा था, उस समय तत्कालीन शासक एलेक्जेंडर केरेंस्की ने रूस को पहले विश्वयुद्ध में झोंक रखा था, क्रांति के तत्काल बाद लेनिन ने शांति की डिक्री जारी की। और, यह स्तालिन का ही नेतृत्व था जिसने दूसरे विश्वयुद्ध में हिटलर-मुसोलिनी को पराजित किया और फासीवाद के आसन्न संकट से विश्व को बचाया। संभवत: फासीवाद के इसी पतन की टीस दक्षिणपंथ के इन प्रवक्ताओं को सताती होगी, क्योंकि ये लोग उनसे नाभिनालबद्ध रहे हैं। यहां तक कि आरएसएस के आरंभिक दौर में मुंजे 'संगठन' सीखने के लिए इटली-जर्मनी गए थे। संगठन और कार्यशैली, दोनों स्तरों पर संघ परिवार पर हिटलर-मुसोलिनी की छाप दिखाई पड़ती है। बात-बात पर सोवियत संघ के पतन की दुहाई देने वाले यह उल्लेख नहीं करते हैं कि सोवियत संघ के पतन के समय भी रूसी नागरिकों का जीवन आज से बेहतर था, चाहे वह शिक्षा हो, खाद्यान्न, या अन्य संसाधन। 
उक्त सकारात्मक प्रवृत्तियों को नजरअंदाज कर शंकर शरण ने 'चिड़ियाघरों' की तरह ही मार्क्सवाद को भी दमन का पर्याय मान लिया। उन्होंने कहा कि पूरी बीसवीं शताब्दी में जहां भी कम्युनिस्ट सत्ताएं रहीं, उन्होंने अपने नागरिकों पर भयावह अत्याचार किए। जैसे कि हिटलर, मुसोलिनी, आडवाणी, मोदी आदि ने तो मानवीयता को कोई आंच भी न आने दी हो! सही बात है कि मार्क्सवाद से प्रभावित कई व्यवस्थाओं में आगे चलकर तानाशाही और दमनकारी प्रवृत्तियां आर्इं, सोवियत संघ में भी आर्इं और उत्तर कोरिया तो इसका ज्वलंत उदाहरण है, लेकिन उक्त प्रवृत्तियां मार्क्सवाद या साम्यवाद नहीं हैं। यहां तक कि कई मार्क्सवादी विचारकों और पार्टियों ने भी इनकी आलोचनाएं की हैं।
तानाशाही और दमनात्मक प्रवृत्तियां संबंधित शासक वर्ग के भ्रष्ट होने का परिणाम हैं, न कि मार्क्सवाद की विसंगति। रूसी क्रांति में आम किसान और मजदूर शामिल थे, यहां तक कि विभिन्न कमिसारों के प्रभारी तक साधारण लोग थे। पहले विश्वयुद्ध के दौरान पैदा हुए खाद्यान्न संकट से रूस को बोल्शेविक नीतियों ने ही उबारा था। परिणाम यह था कि दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान आई आर्थिक मंदी में रूसी जनता को खाद्यान्न संकट का सामना नहीं करना पड़ा। यही व्यवस्था आगे चल कर अपने सिद्धांतों से भटक गई।
इसके विपरीत फासीवाद और दक्षिणपंथ का मूल ही दमन और प्रतिक्रियावाद पर आधारित है। जो भयानक अत्याचार हिटलर और मुसोलिनी ने यहूदियों पर किए, वे क्या पाशविक नहीं थे? भारत के इतिहास को उठा कर देखिए, संघ परिवार ने क्या कम अत्याचार किए? द्विराष्ट्र सिद्धांत की प्रस्तावना, ईसाइयों और मुसलमानों का दानवीकरण, इन दोनों समुदायों को विदेशी घोषित कर इनके खिलाफ घृणा का प्रचार, भारत विभाजन के दंगे। फिर 1992 के दंगे, गुजरात में 2002 का जनसंहार। हजारों लोगों की हत्या और दिल दहला देने वाले इन अत्याचारों के अलावा कोई साल-महीना ऐसा नहीं बीतता, जब इनकी हिंसक कारगुजारियों की खबरें न आएं।
दक्षिणपंथी ताकतें हमेशा अल्पसंख्यकों, महिलाओं, उपेक्षितों और पिछड़े वर्गों का शोषण करती रहीं, अन्य शोषकों का पोषण करती रहीं और अपने विरोधियों को उत्पीड़ित करती रही हैं। खाप पंचायतें सामंती दमन को जारी रखने   वाली संस्थाएं हैं। ये न केवल परंपरागत जाति के बंधनों को बरकरार रखना चाहती हैं, बल्कि युवाओं की चयन की आजादी भी छीन रही हैं, महिला-पुरुषों को प्रताड़ित कर रही हैं, यहां तक कि सम्मान के नाम पर लड़के-लड़कियों की हत्या तक करवा रही हैं। शंकर शरण स्वयं उन खाप पंचायतों का समर्थन करते हैं। 12 नवंबर 2012 के जनसत्ता में छपे लेख में उन्होंने साफ कहा कि ''खाप पंचायतें कुछ गलत नहीं कर रही हैं'', और खाप पंचायतों का विरोध करने वालों को उन्होंने 'कभी ठहर कर सोचने' की हिदायत दी।

इसके बाद शंकर शरण ने उक्त 'पाशविकता' का असर भाषा पर बताते हुए कहा कि मार्क्सवादी गाली-गलौज की भाषा का इस्तेमाल करते हैं। सच यह है कि जिस घृणास्पद भाषा में दक्षिणपंथी व्यवहार करते हैं, उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। आरएसएस के लोगों ने गांधी की हत्या करवाई और उसे 'गांधी वध' कहा था। इनसे महिलाओं और निम्न तबकों के लोगों के लिए अपमानजनक भाषा प्राय: सुनने को मिलती रहती है। अल्पसंख्यकों के लिए जैसी घृणा भरी भाषा इस्तेमाल की जाती है, वह किसी से छिपा नहीं है। गुजरात के दंगों या राम मंदिर मुहिम के वीडियो इसके उदाहरण हैं। आदिवासियों का तो इन्होंने नामकरण ही वनवासी कर दिया। तोगड़िया का उल्लेख तो 'मार्क्सवाद के खंडहर' में स्वयं शंकर शरण ने ही किया। इनके लिए महाश्वेता देवी की क्रांतिकारिता अज्ञान और अहंकार है। 
राज थापर की किताब के सहारे शंकर शरण ने कई आरोप लगाए, लेकिन रोमिला थापर, इरफान हबीब, सुवीरा जायसवाल, डीएन झा, केएन पणिक्कर आदि इतिहासकारों के बारे में अयोध्या विवाद प्रसंग में संघ परिवार की प्रचार सामग्री में कई अपमानजनक बातें कही गर्इं। बाल ठाकरे, वरुण गांधी, प्रवीण तोगड़िया आदि के भाषणों की घृणास्पद भाषा पर तो कई बार विवाद उठे हैं और अदालतों में मामले भी चल रहे हैं। यहां तक कि 'पांचजन्य', 'आॅर्गनाइजर', 'सामना' में तो खुलेआम अपमानजनक भाषा इस्तेमाल की जाती है। 'पांचजन्य' में अफ्रीकी लोगों को 'काले हब्शी', मुसलमानों को 'आतंकवादी' कहा जाता है। इनके लिए 'विवाह और परिवार की मर्यादा में ही स्त्री सुरक्षा है'। 
दक्षिणपंथ के पक्ष से उक्त बातें बार-बार इसलिए दोहराई जाती हैं कि मार्क्सवाद के संबंध में भ्रम की स्थिति बनाए रखी जा सके। असल में मार्क्सवाद के इस विरोध का मूल कारण यह है कि दक्षिणपंथी लफ्फाजियों और कारगुजारियों को बेनकाब करने वाली तमाम वैज्ञानिक और तार्किक धाराएं राजनीतिक रूप से मार्क्सवाद के साथ खड़ी होती हैं। राजनीतिक स्तर पर मार्क्सवाद फासीवाद और दक्षिणपंथ के लिए हमेशा ही चुनौती रहा है। दूसरी तरफ, यह दक्षिणपंथ हमेशा ही समाज के शोषक और प्रतिक्रियावादी तबके से नाभिनालबद्ध रहा है। दूसरे विश्वयुद्ध के समय फासीवादियों की पूंजीपतियों के साथ मिलीभगत अब कोई छिपी बात नहीं रह गई है। 
फासीवादियों का इस्तेमाल कर पूंजीवादियों ने यूरोप, खासकर इटली-जर्मनी के मजदूर आंदोलनों और अन्य संगठनों का सफाया कराया। निकट अतीत में महाराष्ट्र इसका उदाहरण है, जहां पूंजीपति वर्ग के हित में शिवसेना का इस्तेमाल कर ट्रेड यूनियनों का खात्मा करवाया गया और दत्ता सामंत और कृष्णा देसाई जैसे कई मजदूर नेताओं की हत्या करवाई गई। 
दरअसल, मार्क्सवादी सिद्धांतों से प्रेरणा लेने वाले सामाजिक और आर्थिक आंदोलन उन उच्च वर्गों के लिए दिक्कत पैदा करते हैं, जो दक्षिणपंथ के आधार हैं। स्वाभाविक है कि अगर मजदूर आंदोलन मजबूत होंगे तो पूंजीपतियों को नुकसान होगा और सामाजिक स्तर पर दबाए गए समुदाय मजबूत होंगे तो परजीवी ब्राह्मणवादी संस्कृति को चुनौती मिलेगी। अकादमिक स्तर पर मार्क्सवाद क्या, कोई भी तार्किक विचारधारा दक्षिणपंथी लफ्फाजियों को बेनकाब कर सकती है, लेकिन राजनीतिक रूप से मार्क्सवाद ही इन्हें चुनौती पेश करता है। इसलिए दक्षिणपंथ के प्रवक्ताओं की हमेशा यह रणनीति रहती है कि वे सिद्धांतों से भटके मार्क्सवादी नेताओं और व्यवस्थाओं की विसंगतियों को मार्क्सवादी विचारधारा की ही विसंगतियां बता कर प्रस्तुत करें, जिससे आम लोगों में भ्रम पैदा किया जा सके। शंकर शरण के लेख का निमित्त भी इतना ही है। 
और, शंकर शरण ने कुछ नया नहीं कहा। उनके लेख में वे ही बातें हैं जो न जाने कितनी बार वे स्वयं और दक्षिणपंथ के अन्य प्रवक्ता कह-लिख चुके हैं। शीतयुद्ध के जमाने में सोवियत संघ के विपक्ष और पूंजीवादी ताकतों द्वारा अपनाई गई यह रणनीति न केवल पुरानी पड़ गई है, बल्कि इनके आरोपों पर कई बहसें हो चुकी हैं। मार्क्सवाद के नवीन उभारों ने न केवल दक्षिणपंथ को सीमित किया है, बल्कि अपने इतिहास से सीखा भी है। अकारण नहीं है कि बोरिस येल्तसिन ने जिस देश में कम्युनिस्ट पार्टी की गतिविधियों को प्रतिबंधित किया था, बीस साल बाद आज सीपीएसयू की उत्तराधिकारी मानी जाने वाली कम्युनिस्ट पार्टी आॅफ रशियन फेडरेशन राष्ट्राध्यक्ष के चुनाव में दूसरे नंबर पर रही। 
हाल की आर्थिक मंदी के दौर में मार्क्स की लोकप्रियता में वृद्धि हुई और उनकी किताबों के कई नए संस्करण निकले। पुतिन के शासनकाल में स्तालिन की लोकप्रियता में बढ़ोतरी हुई है। लातिन अमेरिका, नेपाल आदि देशों में भी मार्क्सवाद लोकप्रिय हो रहा है। मार्क्सवादी आंदोलन भी मजदूर-किसान वर्ग के साथ-साथ महिला, जाति, संस्कृति, पर्यावरण आदि सवालों से जुड़ कर व्यापक हुए हैं। ये सब मुख्यत: सोवियत संघ के पतन के बाद और उदारीकृत अर्थव्यवस्था के दौर में हुए   विकास हैं। ये ऐसे विकास हैं जो मार्क्सवाद की नवीन व्याख्या कर रहे हैं और उसे नए आयाम दे रहे हैं।
कहने की आवश्यकता नहीं कि इनका तोड़ न तो पूंजीवादी ताकतों के पास है और न ही फासीवादी दक्षिणपंथ के पास। इसलिए मार्क्सवाद के ये अंध विरोधी पीछे रह गए हैं और आज भी शीतयुद्धकालीन पुरानी रणनीतियों और घिसी-पिटी लफ्फाजियों का ही सहारा लेने का प्रयास कर रहे हैं।
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/44037-2013-05-07-04-21-00

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