Sunday, May 10, 2015

सुरसती मैया की जै

सुरसती मैया की जै

सुरसती मैया की जै…ताकि खबर बनकर न रह जायें ये पहल

 ''भारत बना, दुनिया के सर्वाधिक तेजी से बढ़ते बोतलबंद पानी बाजारों में से एक'' – यह पहली खबर, बैसाख-जेठ में पानी का प्याऊ लगाकर जलदान को महादान बताने वाले भारत देश की है।

दूसरी खबर सान फ्रांसिस्को के देश, उत्तरी कैलीफोर्निया से आई है – ''सान फ्रांसिस्को बना, बोतलबंद पानी की बिक्री पर रोक लगाने वाला पहला नगर''।

सान फ्रांसिस्को, उत्तरी कैलीफोर्निया का एक जाना-माना सांस्कृतिक का व्यावसायिक केन्द्र है। जाने-माने जल विशेषज्ञ श्री कृष्ण गोपाल व्यास जी द्वारा मेल से मुझे भेजी यह खबर सचमुच खुश करने वाली है। खबर के अनुसार, नौ महीने की चली बहस के बाद सेन फ्रांसिस्को ने यह निर्णय लिया गया। तय किया गया कि जीवन के जरूरी पानी का व्यावसायीकरण अनुचित है। नागरिक, तय स्थानों पर लगी मशीनों के जरिये अपनी बोतल में मुफ्त पानी ले सकते हैं।

चाहिए एक सकरात्मक सोच

आइये, उक्त दोनो खबरों के विरोधाभास पर हम सकारात्मक चिंतन करें। चिंतन करें कि सेन फ्रांसिसकों में मुफ्त पेयजल के लिए लगाई मशीन, पानी के बाजार के खिलाफ एक औजार बनकर खङी हो सकती है, तो हमारा प्याऊ क्यों नहीं हो सकता ? सई जलबिरादरी के एक पुराने, किंतु नौजवान साथी आर्यशेखर ने इस पर चिंतन किया है। सई को निर्मल बनाने का उनका काम, जन-जागरण तक सीमित होकर जरूर रह गया, किंतु वह, इलाहाबाद में पिछले तीन वर्षों से हर गर्मी गुड़-पानी के प्याऊ लगा रहे हैं। उनसे प्रेरित हो, यह श्रृंखला आगे बढी है। आर्यशेखर, आजकल कंपनी की चाय बेचते हैं। कमाई से आये पैसे में से कुछ प्याऊ और कुछ हर रोज, सैंकड़ों चिड़ियों को नमकीन चुगाने में लगाते हैं। बधाई!

झील कब्जा मुक्ति अभियान, बंगुलुरु

ऐसी सकारात्मक पहल को लेकर विरोधाभास का तो प्रश्न ही नहीं है। किंतु आपके मन में फिर एक विरोधाभास, बंगुलुरु की एक खबर पर भी हो सकता है। बंगुलुरु प्रशासन ने स्थानीय झीलों पर हुए कब्जे को हटाने के लिए अभियान शुरु कर दिया है। हम सभी जानते हैं कि बंगुलुरु की मशहूरियत एक वक्त में 'झीलों के नगर' के रूप में ही थी। जिनमें से अधिकतर आज कब्जे की शिकार हैं। ऐसे में कब्जा मुक्ति अभियान को लेकर हमें खुशी ही होनी चाहिए। किंतु जिन मकान मालिकों को पता ही नहीं कि उनका मकान झील पर बना है; उनके लिए तो यह अभियान दुख की खबर ही है।

जागते रहो

यह विरोधाभास सतर्क करता है कि संपत्ति खरीदने से पहले, उसकी लागत व गुणवत्ता ही नहीं, भूमि की जांच-पड़ताल भी जरूरी है। निजी ही नहीं, सरकारी विकास प्राधिकरणों द्वारा तालाब/झीलों की जमीनों पर बनाई इमारतों के उदाहरण, भारत देश में उदाहरण, एक नहीं, हजारों में हों, तो ताज्जुब नहीं। अतः सिर्फ सतर्कता तो जरूरी ही होगी। ऐसी ही सतर्कता की दृष्टि से राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने ग्रेटर नोएडा इलाके को लेकर कम सख्ती नहीं की। बिल्डरों द्वारा भूजल दोहन पर रोकसे लेकर इंसान और पक्षियों के हित में आदेश कई दिए। तीसरी खबर के रूप में सुना है कि अब उत्तर प्रदेश सरकार भी चेती है।

जागी उ. प्र. सरकार

खबर है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने 'मुख्यमंत्री जल बचाओ अभियान योजना' की शुरुआत की है। किन इलाकों में योजना पहले शुरु की जाय ? इसका आधार विकास खण्डों की अतिदोहित, क्रिटिकल और सेमी क्रिटिकल श्रेणी की पहचान के रूप में तय होगा। नोएडा-ग्रेटर नोएडा, इस सूची में प्राथमिक स्थान पर हैं। इसके लिए जिलाधिकारी की अध्यक्षता में जिला स्तरीय 'जल बचाओ समिति' भी गठित कर दी गई है। मुख्य विकास अधिकारी, विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष, नगर आयुक्त, अधिशासी अभियंता, अधिशासी अभियंता (लघु सिंचाई), अधिशासी अभियंता(जल निगम), प्रभारी वनाधिकारी, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के क्षेत्रीय अधिकारी, उपायुक्त (मनरेगा), एडीएम और एसडीएम आदि को इस समिति का मुख्य सदस्य बनाया गया है।

योजना के तहत् जल संरचनाओं की डिजिटल डायरी बनाई जायेगी। यह सुनिश्चित करना पहला कदम होगा कि आगे कब्जा न हो। प्राकृतिक जल संरचनायें प्रदूषित न हो, यह सुनिश्चित करना दूसरा कदम होगा। तालाबों का सौंदर्यीकरण और उनके किनारे पौधारोपण इस दिशा में तय तीसरा कदम है। सुखद है कि उत्तर प्रदेश शासन ने इसके लिए 31 अगस्त की समय सीमा तय कर दी।

अब ऐसे में हमारा दायित्व है सरकारी पहल में सहभागी बनें। सरकारें इसकी इच्छुक न हों, तो भी। आखिरकार, ऐसी योजनाओं में पैसा अंततः हम नागरिकों का तो ही लगता है। जरूरी है कि यह सिर्फ, ठेकेदार,नेता और अफसरों के हित का काम बनकर न रह जाये। प्रत्येक योजना में जन-निगरानी, जन-सुझाव तथा जन-सहयोग जरूरी है और जरूरत पङे, तो विरोध भी। नतीजा आयेगा ही' ठीक वैसे, जैसे 21 अप्रैल से चल रही खुदाई का आया।

सुरसती मैया की जै

प्रदेश हरियाणा, जिला – यमुना नगर, गांव-मुगलवाली, स्थान – रूल्लाहेङी। मनरेगा ने जिम्मा लिया। सलमा और रफीक का फावड़ा चला। मात्र सात फीट की गहराई पर नीली बजरी, चमकता रेत और निर्मल.. बिल्कुल नदी जैसा पानी! भरोसा नहीं हुआ, तो 10 फीट तक गहरे कई गड्ढे खोदे गये। मालूम नहीं, धरती डोली या कुछ और हुआ; पानी इतना ऊपर कैसे आया ? सबके मुंह से यही निकला – '' सुरसती मैया की जै'' अखबारों में सरस्वती उद्गम स्थल 'आदिबद्री' की फोटो छपी और साथ में एक खबर – ''मिल गई सरस्वती नदी की लुप्त धारा'' यह कौन सी सरस्वती है ? जो कभी इलाहाबाद पहुंचकर त्रिवेणी की तीन वेणियों में से एक वेणी बनी या फिर रन के कच्छ तक पहुंची एक धारा। श्रृगवेद् की मानें तो भी और कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों की मानें तो भी, है तो यह नदी सरस्वती ही। अतः वर्ष 1998 से सरस्वती निधि शोध संस्थान बनाकर आस लगाये बैठे 88 वर्षीय दर्शनलाल जैन की कामना पूर्ण हुई। अब पूरी धारा को ऊपर लाने का काम हो। नदी के आसपास के कुंए, तालाब और जोहड़ों का पेट भरे, तो मां प्रसन्न हो और दर्शन दे।

अरुण तिवारी

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About The Author

अरुण तिवारी, लेखक प्रकृति एवम् लोकतांत्रिक मसलों से संबद्ध वरिष्ठ पत्रकार एवम् सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

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