Sunday, May 10, 2015

सीताराम येचुरी नए माकपा महासचिव – जनवादी-लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष राजनीति के लिए आशा की किरण

सीताराम येचुरी नए माकपा महासचिव – जनवादी-लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष राजनीति के लिए आशा की किरण

Batbolegihamnahin-300x150 सीताराम येचुरी नए माकपा महासचिव - जनवादी-लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष राजनीति के लिए आशा की किरणआखिरकार भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) – माकपा ने भी अपना चेहरा बदल ही लिया। अब कॉमरेड सीताराम येचुरी माकपा के नए महासचिव होंगे, वे प्रकाश कारत का स्थान लेंगे। इसी के साथ प्रकाश कारत ऐसे महासचिव के रूप में इतिहास में दर्ज हो गए, जिनके नेतृत्व में माकपा अपना 33 सालों का मजबूत किला प. बंगाल गंवा बैठी।

पार्टी की केंद्रीय समिति की बैठक में निवर्तमान महासचिव प्रकाश कारत ने सीताराम येचुरी के नाम का प्रस्ताव रखा, जिसका अनुमोदन एस. रामचंद्रन पिल्लई ने किया जिसे सर्व सम्मति से स्वीकार कर लिया गया।

हालांकि कम्युनिस्ट पार्टियों में महासचिव बनना या हटना कोई खास मायने नहीं रखता, क्योंकि वाम दलों में व्यक्ति से ज्यादा नीतियों को तरजीह दी जाती है, लेकिन प्रकाश कारत की विदाई और येचुरी की ताजपोशी वाम राजनीति में भी बदलाव के खास संकेत दे रही है। समझा जा सकता है कि भारतीय राजनीति में चेहरे के करिश्मे की हकीकत अब माकपा को भी समझ आने लगी है। 62 वर्षीय येचुरी, 67 वर्षीय कारत के मुकाबले युवा हैं, आपात्काल में जेल जा चुके हैं।

भारत में मुख्य धारा के वामपंथी दलों की अजब समस्या रही है। वे व्यक्ति के चेहरे को पार्टी के ऊपर तरजीह नहीं देते हैं। एक सीमा तक उनकी यह नीति ठीक है, लेकिन जनाधार वाले नेता के विरुद्ध वामदल अतिवादी हो जाते हैं और उन्हें लगने लगता है कि जनाधार वाला नेता पार्टी की नीतियों के विरुद्ध जा रहा है। इसी अतिवादी सोच के चलते वामदलों ने न केवल अपने कई बड़े नेताओं का नुकसान किया है बल्कि पार्टी के लिए उनकी यह नीति आत्मघाती साबित हुई है। येचुरी को पार्टी की कमान सौंपकर उसने स्वयं को दुरुस्त करने का प्रयास किया है। यह ठीक है कि व्यक्ति को पार्टी के ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिए, लेकिन यह भी उतना ही कटु सत्य है कि संसदीय राजनीति में एक जनता के चेहरे की भी आवश्यकता होती है। केवल संसदीय राजनीति ही नहीं, क्रांतियां भी बिना किसी प्रभावशाली चेहरे के नेतृत्व के बिना अभी तक तो संभव नहीं हुई हैं। रूस में लेनिन, चीन में माओ, क्यूबा में फिडेल कास्त्रो आखिर वहां की कम्युनिस्ट पार्टियों का चेहरा तो रहे ही हैं, फिर संसदीय राजनीति में बिना चेहरे के कोई भी दल कामयाब कैसे हो सकता है। पं. बंगाल में तीन दशक तक ज्योति बसु पार्टी का चेहरा रहे ही हैं। असल में क्रांति और संसदीय राजनीति दो विपरीत ध्रुव हैं। क्रांति में समझौते नहीं होते और संसदीय राजनीति में अक्सर समझौते करने होते हैं। भारत की कम्युनिस्ट पार्टियां जितना जल्दी इसको समझें बेहतर है।

कारत की जगह येचुरी का महासचिव बनना इस बात का भी एक संकेत हो सकता है कि अब पार्टी के पास एक जनप्रिय और कैडर में लोकप्रिय चेहरा है। ऐसा इसलिए भी हो सकता है कि जिस तरह से संघ परिवार ने नरेंद्र मोदी के चेहरे की आड़ बनाकर लोकसभा चुनाव में अपार सफलता पाई और कांग्रेस अपना लोकप्रिय चेहरा न प्रोजेक्ट कर पाने के कारण बुरी तरह पराजित हुई, बाद में केजरीवाल के चेहरे पर दिल्ली में आप ने सफलता के झंडे गाड़े, उससे भी माकपा को अपनी गल्ती का एहसास हुआ हो। और देखने में आया कि येचुरी का नाम महासचिव के लिए आगे बढ़ने की सूचना मात्र से कोलकाता नगर निगम चुनाव में वाम कैडरों में अभूतपूर्व उत्साह का संचार हुआ।

दरअसल पं. बंगाल विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद ही माकपा में नेतृत्व परिवर्तन के स्वर उठने शुरू हो गए थे, लेकिन लोकसभा चुनाव में पार्टी के अब तक के सर्वाधिक निराशाजनक प्रदर्शन के बाद पार्टी की कतारों में यह मांग जोर-शोर से उठनी शुरू हो गई थी। कोलकाता में माकपा की राज्य कमेटी की बैठक के दौरान कमेटी के सदस्यों ने नेतृत्व परिवर्तन की माँग की थी। इतना ही नहीं, माकपा नेताओं ने लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार के लिए पार्टी महासचिव प्रकाश करात के गलत राजनीतिक फैसलों को जिम्मेदार बताया था। बताया जाता है कि इस बैठक में करात के साथ-साथ त्रिपुरा के मुख्यमंत्री मानिक सरकार और तत्कालीन पोलित ब्यूरो के सदस्य सीताराम येचुरी भी मौजूद थे।

लोकसभा चुनाव के बाद माकपा में 35 वर्षो से विधायक-मंत्री रहे अब्दुर्रज्जाक मोल्ला ने कहा था कि पार्टी में नेता व कैडर नहीं हैं बल्कि अब मैनेजर व कुछ कर्मचारी रह गये हैं। उनका इशारा कारत की तरफ था। …और जब येचुरी आज महासचिव चुने गए तो वामपंथी नेता व चिंतक अरुण माहेश्वरी ने भी इन शब्दों में उन्हें बधाई दी- "सीपीआई(एम) के महासचिव पद पर सीताराम येचुरी को चुन लिया गया है। उम्मीद की जा सकती है कि आगे पार्टी पर नौकरशाही जकड़न ढीली होगी। खुलापन आयेगा। संगठन चुस्त दुरुस्त होंगे। वामपंथ को उसके वर्तमान पतन की दशा तक ले जाने वाले 'सक्रियजनों' से पार्टी को मुक्त कराने की कुछ कोशिश होगी। सीताराम येचुरी को बधाई।"

लोकसभा चुनाव में माकपा के निराशाजनक प्रदर्शन की पृष्ठभूमि में पार्टी के पूर्व दिग्गज नेता सोमनाथ चटर्जी ने सबसे पहले कहा था कि पार्टी नेतृत्व में तत्काल बदलाव होना चाहिए। सोमनाथ चटर्जी ने कहा था कि माकपा का मौजूदा नेतृत्व लम्बे समय से है और इसे तत्काल हट जाना चाहिए। उन्होंने साफ-साफ कहा था कि पार्टी दिग्गज वामपंथी नेता ज्योति बसु की उस सलाह का अनुसरण करने में विफल रही है, जिसमें उन्होंने कहा था कि पार्टी को हमेशा जनता के साथ सम्पर्क में रहना चाहिए। चटर्जी ने कहा था कि ज्योति बसु अक्सर पार्टी नेताओं से कहा करते थे कि वे जनता के साथ निरन्तर सम्पर्क में रहें, लेकिन माकपा नेतृत्व लोगों से दूर हो गये और ज्वलनशील मुद्दों पर कोई एक आंदोलन भी नहीं खड़ा कर पाये।

दरअसल प्रकाश कारत माकपा की बंगाल लॉबी के सामने अपना किला गंवा बैठे। बंगाल लॉबी करात को ज्योति बसु के प्रधानमंत्री न बनने देने के लिए जिम्मेदार मानती रही है। यह काफी हद तक सही भी है। संयुक्त मोर्चा की सरकार बनने पर जब कॉमरेड ज्योतिबसु को प्रधानमंत्री बनने का ऑफर दिया गया था तो पार्टी पॉलिट ब्यूरो ने उन्हें इसकी इजाजत नहीं दी थी। हालांकि कहा जाता है कि तत्कालीन महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत बसु को प्रधानमंत्री बनाए जाने के पक्ष में थे, लेकिन करात के नेतृत्व में हार्डलाइनर धड़ा उस समय हावी रहा। इसी तरह परमाणु करार के मसले पर मनमोहन सरकार के खिलाफ अविस्वास प्रस्ताव के मसले पर सोमनाथ चटर्जी को लोकसभा अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के लिए दबाव डालना और फिर उनका पार्टी से निष्कासन भी कारत के खिलाफ कैडर में असंतोष का मुख्य कारण बना।

नए महासचिव सीताराम येचुरी, माकपा का फोटोजनिक-मीडियाफ्रेंडली चेहरा हैं। प्रकाश कारत के मुकाबले लिबरल समझे जाते हैं और सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि वे पार्टी कैडर के बीच कैडर के ही आदमी समझे जाते रहे हैं, जबकि प्रकाश कारत हार्डलाइनर, रिजर्व नेचर और कार्यकर्ताओं से दूरी बनाकर रखने वाले नेता समझे जाते रहे हैं। इसके बावजूद येचुरी के सामने चुनौतियां बहुत कठिन हैं। अगले साल पं. बंगाल में विधानसभा चुनाव हैं। वहां भगवा पार्टी का उदय हो चुका है, तो माकपा कैडर इन तीन सालों में पिट-पिट कर मायूस हो चुका है। कई बड़े जनाधार वाले नेताओं को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया जा चुका है। ऐसे में येचुरी बंगाल माकपा में क्या नई जान फूँक पाते हैं, यह देखना है।

येचुरी के सामने चुनौती केवल बंगाल की ही नहीं है। केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद वाम दलों के पास एक अवसर स्वयं को सारे देश में प्रतिरोध की एक ताकत बना पाने का है। देखना है कि क्या येचुरी यह करिश्मा कर पाते हैं। हालांकि यह कोई कठिन काम भी नहीं है। दो दशक पहले तक देश में सारे बड़े जनांदोलन वाम दलों की अगुवाई में ही हुए हैं। ऐसे में बंगाल और केरल के माकपा कैडर में तो नई ऊर्जा का संचार हुआ है, लेकिन क्या येचुरी पार्टी को बंगाल-केरल और त्रिपुरा की परिधि से बाहर भी ले जा पाते हैं कि नहीं, प्रश्न यह है।

एक अहम बात यह है कि माकपा की नई 16 सदस्यीय पॉलिट ब्यूरो में एक भी सदस्य हिंदी प्रदेशों का नहीं है। माकपा और भाकपा पर हिंदी विरोधी होने के आरोप लगते रहे हैं, जो काफी हद तक सही भी हैं। दोनों ही कम्युनिस्ट पार्टियों में हिंदी पट्टी से आने वाले प्रतिभाशाली नेतृत्व को मिट्टी में मिलाया जाता रहा है। हालांकि येचुरी हिंदी अच्छी बोलते हैं लेकिन अगर हिंदी पट्टी का प्रतिनिधित्व पॉलिट ब्यूरो में नहीं होगा तो येचुरी की लाख कोशिशों के बावजूद पार्टी बंगाल-केरल और त्रिपुरा की परिधि से बाहर नहीं निकल पाएगी। वैसे सुभाषिनी अली पॉलिट ब्यूरो में हैं, जो कानपुर से माकपा की सांसद रही हैं, लेकिन वह प्रतिनिधित्व बंगाल का कर रही हैं और वर्षों से उनका कानपुर से कोई नाता भी नहीं रहा है। और मजेदार बात यह है कि माकपा की वेबसाइट पर हिंदी सेक्शन 16 मई 2014 के बाद से आज तक अपडेट ही नहीं हुआ है।

बहरहाल येचुरी का नया माकपा महासचिव बनना माकपा के लिए तो शुभ संकेत है ही, देश में जनवादी-लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष राजनीति के लिए भी आशा की किरण है।

अमलेन्दु उपाध्याय

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अमलेन्दु उपाध्याय, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक हैं। हस्तक्षेप डॉट कॉम के संपादक हैं।

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