Saturday, 03 March 2012 12:39 |
नरेश गोस्वामी सच तो यह है कि जन-जीवन को आमूल बदल देने वाले उस निर्णय पर जिस तरह की भाषा और जटिल सूत्रों में बातें की गई थीं उसे लोग न तब समझ पाए थे, न आज समझते हैं। इसलिए लोकतंत्र के तलबगारों को खुद से यह सवाल आगे लगातार पूछना पडेÞगा कि क्या सिर्फ चुनाव हो जाने और सरकार बन जाने से जनता का सबलीकरण हो जाता है? असल में, पिछले दो दशक के दौरान लोकतंत्र की दूसरी लहर का जो हश्र हुआ है उसे देखते हुए यह पड़ताल और जरूरी हो गई है। लोकतंत्र की इस दूसरी लहर में मंडल आयोग के बाद राजनीति में उन जातियों का प्रवेश एक ऐतिहासिक घटना थी जो लोकतंत्र की पहली लहर में सत्ता से वंचित रह गए थे। यह बात सब जानते हैं कि इलाकाई राजनीति पिछले बीस-पचीस बरसों में इन्हीं पिछड़ी और दलित जातियों से तय हो रही है। और अब हालत यह हो चुकी है कि केंद्र सरकार तक उनकी सहायता या समर्थन के बिना डावांडोल हो जाती है। इन जातियों का नेतृत्व जो लोग कर रहे थे उनके गंवई तौर-तरीकों को देख कर यह उम्मीद जगी थी कि शायद वे देश की प्राथमिकताएं बदलने का प्रयास करेंगे या कि उनकी देशज जीवन-शैली और खेती-किसानी की पृष्ठभूमि अर्थतंत्र के उस ढांचे को बदल देगी जिसमें देश का अल्पमत समूह अपनी ही जनता का शोषण करता रहा है। लेकिन इन्हीं बरसों में मुक्त बाजार ने समाज में अमीरी, अनियंत्रित उपभोग और आम लोगों को साधनहीन करने की जो प्रक्रिया शुरू की, उसमें वह पिछड़ा और दलित नेतृत्व भी साझीदार हो गया जो मूलत: प्रतिरोध की राजनीति से आया था और जिनके समर्थकों ने रोजमर्रा के जीवन में सत्ता के ऐश्वर्य और उसकी अराजकता के नतीजे भुगते थे। आज इन राजनीतिक दलों के पास भी अपने-अपने पूंजीपति और सत्ता के प्रबंधक हो गए हैं। मायावती पहचान और सोशल इंजीनियरिंग की जिस राजनीति को साध कर सत्ता में आर्इं और जिसे लोकतंत्र के सिद्धांतकारों ने इस बात की मिसाल बना कर प्रचारित किया कि लोकतंत्र में बिना रक्तपात के भी कितना बड़ा सामाजिक बदलाव लाया जा सकता है, उसी दलित मुख्यमंत्री के काल में जमीन के नामालूम कारोबारी धन्नासेठ बन गए। नोएडा में फार्मूला वन रेस जैसे फूहड़ तमाशे का आयोजन कराया गया। इसी तरह धरतीपुत्र कहे जाने वाले मुलायम सिंह यादव की पार्टी तो एक समय जैसे फिल्मी सितारों और अमर सिंह जैसे लोगों के कब्जे में चली गई थी। आखिर ऐसा क्या हुआ होगा कि जो पार्टी अपने जातिगत आधार के कारण मजबूत बनी, चुनाव लड़ी और सरकार बनाने में सक्षम हुई, उसे ऐसे सितारों और धंधेबाजों की जरूरत आ पड़ी। दरअसल, यहीं से पता चलता है कि जनता सिर्फ चुनावी राजनीति में भाग लेती है। जबकि इसके परे संसाधनों पर कब्जे की एक और राजनीति है, जहां देश-समाज का अल्पमत जन-दबावों से सुरक्षित रह कर अपने हितों का गुणा-भाग करता रहता है। एक लंबे समय तक इस संरचना पर पारंपरिक अभिजनों या अगड़ी जातियों का कब्जा रहा, लेकिन इधर के वर्षों में इसमें पिछड़ा और दलित नेतृत्व भी शामिल हो गया है। सच तो यह है कि इसमें वह हर राजनीतिक समूह शामिल हो सकता है जो बाजार का साझीदार बनने को तैयार है। गहराई से देखें तो अल्पमत का वर्चस्व इसलिए घटित हुआ है, क्योंकि हमारी शासन-व्यवस्था में संसाधनों का प्रवाह केंद्र की तरफ जाता है। हमारी व्यवस्था की बनावट ही ऐसी है कि अंतत: देश-समाज की संपदा का नियंत्रण और उसका बंटवारा इसी अल्पमत राजनीतिक सत्ता के हाथों में चला जाता है। संसाधनों पर इस एकछत्र नियंत्रण का परिणाम यह होता है कि सरकार सर्वशक्तिमान बन जाती है और जनता निरीह हो जाती है। इस पर इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ता कि सरकार कांग्रेस की है या भाजपा की। उसका चरित्र ही ऐसा है कि उसमें जो भी प्रवेश करेगा उसे उसकी शर्तों के अनुसार ही काम करना होगा। जाहिर है कि ऐसे में चाहे मायावती हों या मुलायम सिंह, दोनों को या तो अल्पमत की ही राजनीति करनी होगी या फिर राजनीति का कोई और विकल्प तैयार करना होगा। बहरहाल, यह अकारण नहीं है कि बरसों से जड़ता का रूपक बने उत्तर प्रदेश के चुनावों में मुख्यधारा के सारे दल एक दूसरे की खामियां तो गिना रहे हैं, लेकिन कोई भी यह ठीक-ठीक नहीं बता सकता कि उसके सत्ता में आने से जनता का भला कैसे हो जाएगा। जो अल्पमत के वर्चस्व पर टिकी इसी राजनीति का हिस्सा है वह उसकी अपूर्णताओं, सीमाओं और उसमें निहित अन्याय पर कैसे उंगली उठा सकता है! |
Saturday, March 3, 2012
सत्ता का नेपथ्य
सत्ता का नेपथ्य
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