| Monday, 06 May 2013 10:16 |
कुसुमलता केडिया दूसरी ओर ब्रिटेन के पक्ष को प्रथम महायुद्ध की ही तरह द्वितीय महायुद्ध में भी सफलता मिली, तो मुख्यत: भारतीय सेनाओं के कारण। भारत में सेनाओं की हजारों वर्ष पुरानी व्यवस्थित परंपरा रही है, किसानों और वनवासियों सहित संपूर्ण देश के लोगों में अपने सपूतों को सेना में भेजने का गौरव और उत्साह रहा है। अनेक जगह स्त्री सेनाएं भी संपूर्ण इतिहास में होती रही हैं। इसलिए भारतीय सैनिक परंपरा से ही कुशल योद्धा हैं। दूसरी ओर उन्नीसवीं शताब्दी तक ब्रिटेन में कोई व्यवस्थित सेना नहीं थी। अलग-अलग जागीरदारों के झुंड थोड़े-से लोगों को तलवार आदि चलाना सिखाते रहते थे और उन्नीसवीं शताब्दी में कुछ जगह बंदूक चलाने का भी निजी तौर पर प्रशिक्षण दिया जाने लगा था। प्रथम महायुद्ध के आते ही ब्रिटेन में इसीलिए जबर्दस्त घबराहट फैल गई और फिर ताबड़तोड़ हर नवयुवक और प्रौढ़ को सेना में भर्ती करने का बलपूर्वक अभियान चलाया गया। उन्हें शीघ्रता में प्रशिक्षण दिया गया। उन ब्रिटिश सैनिकों की देशभक्ति असंदिग्ध थी, लेकिन युद्ध कौशल पूरी तरह नया-नया अर्जित किया गया था। इसीलिए दोनों ही महायुद्धों में ब्रिटिश पक्ष की जीत में भारतीय सैनिकों की ही निर्णायक भूमिका रही। तब भी, द्वितीय महायुद्ध में ब्रिटेन बुरी तरह जर्जर हो गया। ऐसे में नेताजी के नेतृत्व में स्वाधीन भारतीय सेना का नगालैंड से म्यांमा की सीमा तक बढ़ता दबाव उनकी घबराहट बढ़ाने के लिए काफी था। अंग्रेजों ने तेजी से भारत में अपने मित्रों की तलाश बढ़ा दी। साथ ही घोषणा की कि वे शीघ्र ही सत्ता का हस्तांतरण करके जाएंगे। आखिरकार उन्होंने यह घोषणा भी कर दी कि कांग्रेस 1946 में जिस व्यक्ति को अपना अध्यक्ष चुनेगी, उसे ही भारत का अगला प्रधानमंत्री ब्रिटेन के द्वारा मनोनीत किया जाएगा और उसको ही अपनी सत्ता विधिवत सौंप कर वे जाएंगे। ऐसी स्थिति में मौलाना आजाद का कांग्रेस अध्यक्ष बने रहना ब्रिटिश पक्ष को बिल्कुल स्वीकार नहीं था। मगर प्रदेश कांग्रेस समितियों और कांग्रेस कार्यसमिति ने जिन लोगों को अध्यक्ष के लिए प्रस्तावित किया, उनमें से किसी का नाम इंग्लैंड को पसंद नहीं आया। हालांकि उनमें सरदार पटेल और डॉ राजेंद्र प्रसाद के नाम भी थे, जो कि ब्रिटिश शासन और ब्रिटिश शिक्षा के बड़े प्रशंसक माने जाते थे। पर इंग्लैंड को कुछ और चाहिए था। ब्रिटिश शासकों ने महात्मा गांधी के साथ अपनी आध्यात्मिक मैत्री का वास्ता दिया और उनसे मंत्रणाओं के कई दौर चले, जिसका परिणाम यह निकला कि गांधीजी ने कार्यसमिति से अपील की कि अगला अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू को चुना जाए। हालांकि नेहरू के पक्ष में एक भी वोट नहीं पड़ा था। जो भी हो, गांधीजी के आग्रह को स्वीकार कर लिया गया और नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया। बाद में उन्हें सत्ता की जिम्मेदारी सौंपने के दौरान वह दायित्व आचार्य जेबी कृपलानी को दिए जाने का भी निश्चय किया गया। जवाहरलाल नेहरू ने स्वाधीन भारत सरकार की सेना यानी नेताजी सुभाषचंद्र बोस की सेना के विरुद्ध इम्फाल के मोर्चे पर स्वयं तलवार लेकर जाने और लड़ने की घोषणा की। इससे स्पष्ट है कि वे ब्रिटिश पक्ष के कितने आत्मीय हो चुके थे और ब्रिटिश पक्ष के लक्ष्यों के प्रति उनमें कैसी गहरी श्रद्धा थी कि वे उसके लिए अपने प्राणों को भी न्योछावर करने को तैयार थे। हालांकि उनके युद्ध कौशल के विषय में कोई भी जानकारी प्राप्त नहीं होती। 'ट्रांसफर ऑफ पॉवर' के दस्तावेजों में भी कई स्पष्ट संकेत हैं कि नेहरू ने ब्रिटिश पक्ष के साथ निम्नांकित बिंदुओं पर पूर्ण सहमति जताई: एक, नेताजी सुभाषचंद्र बोस को युद्धबंदी माना जाएगा और उन्हें मिलते ही ब्रिटेन को युद्धबंदी के रूप में सौंप दिया जाएगा। दो, 2021 आजाद हिंद फौज और उसके अधिकारियों पर चले मुकदमे के विषय में शासन के स्तर पर कोई भी सार्वजनिक प्रसारण नहीं किया जाएगा, सूचना नहीं दी जाएगी और उसके तथ्य सार्वजनिक नहीं किए जाएंगे। तीन, भारत ब्रिटिश कॉमनवेल्थ (संयुक्त संपदा) का अभिन्न अंग बना रहेगा। इस प्रकार भारतीय संपदा पर औपचारिक तौर पर ब्रिटिश स्वामित्व आंशिक रूप से स्वीकार होगा। चार, भारत में ईसाई मिशनरियों को धर्मांतरण की भरपूर सुविधा सुलभ कराई जाएगी और महात्मा गांधी के इस आग्रह का बिल्कुल भी पालन नहीं किया जाएगा कि 'धर्मांतरण हलाहल विष है और स्वाधीन भारत सरकार उसे पूरी तरह गैर-कानूनी करार देगी।' पांच, भारत में सभी ब्रिटिश कानून यथावत जारी रहेंगे। स्वाधीन भारत की संसद उन सब कानूनों को वैधता प्रदान कर दे, इसका नेहरू जिम्मा लेते हैं। छह, भारत में अंग्रेजी को पूर्ण महत्त्व प्राप्त होगा और ब्रिटिश शिक्षा और ब्रिटिश ज्ञानकोश से भारतीय शिक्षित समाज को सदा संबद्ध रखा जाएगा। सात, ब्रिटिश संसदीय प्रणाली भारतीय लोकतंत्र के लिए एक मॉडल मान्य होगी। इस प्रकार इन सब सहमतियों के मध्य सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया और नेतृत्व का निर्धारण हुआ। इतिहास के इन तथ्यों को सार्वजनिक विमर्श का अंग बनाया जाना जरूरी है। नेहरू ने सत्ता संभालने के बाद इतिहास के इन तथ्यों को सार्वजनिक चर्चा से बाहर रखने की प्रेरणा दी। इसके साथ ही यह प्रयास भी किया गया कि कांग्रेस मुख्यत: नेहरूवादी यानी समाजवादी बनी रहे और उसमें राष्ट्रीय विचार की अन्य धाराओं का प्रतिनिधित्व समाप्त होता जाए। इस प्रकार वह राष्ट्रीय मंच न रह कर कम्युनिस्ट अर्थों वाली एक पार्टी बनती जाए।
|
Wednesday, May 8, 2013
सत्ता हस्तांतरण का सच
सत्ता हस्तांतरण का सच
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/43959-2013-05-06-04-46-56
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment