...तोबे ऐकला चलो रे
रवीन्द्रनाथ टैगोर के जन्मदिवस 7 मई पर विशेष
विद्यापति के श्रृंगार रस और कबीर के रहस्यवाद से प्रभावित गुरुदेव की अधिकांश कविताएं श्रृंगार रस और रहस्यवादी या आध्यात्मिकता के बेहतरीन उदाहरण हैं. उनकी दृष्टि की व्यापकता संपूर्ण रचनाकर्म में दिखाई पड़ती है...
राजीव आनंद
इंग्लैण्ड में जो स्थान वडर्सवर्थ का है और जर्मनी में गोयथ का, वही स्थान भारत में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का है. आत्मीयता की डोर से बंधे भावुक सुकुमार कवि थे गुरुदेव. यह जानकर आश्चर्य होता है कि एक व्यक्ति एक समय में कवि, उपन्यासकार, कहानीकार, नाटककार, चित्रकार, संगीतकार, समाजसेवी, शिक्षाशास्त्री, विचारक और यायावर हो सकता है. इतने सारे गुण रवीन्द्रनाथ ठाकुर में समाहित थे. उनकी दृष्टि बहुत व्यापक थी जिसका विस्तार संपूर्ण विश्व तक था. गुरुदेव को विश्व महामानव की संज्ञा दी जाती है.
गुरुदेव की पहली कविता 'अभिलाषा' 1874 में तत्वबोधिनी नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई, तब वे मात्र 13 वर्ष के थे. अपने जीवनकाल में रवीन्द्रनाथ टैगोर 12 हजार से अधिक कविताएं, लगभग 2 हजार गीत, 13 उपन्यास, 12 कहानी संग्रह, 6 यात्रा संस्मरण, 34 लेख-निबंध आलोचनाएं और 3 खण्डों में अपनी आत्मकथा लिखी.
बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में रवीन्द्रनाथ टैगोर गिरिडीह आने के लिए मधुपुर जंक्शन पर हावड़ा एक्सप्रेस से उतरे. उस समय गिरिडीह स्वास्थ्यवर्द्धक स्थान के रूप में जाना जाता था. मधुपूर के मनमोहक पठारी इलाकों को देखकर गुरुदेव ने 'कैमेलिया' नामक कविता लिखी. गिरिडीह पहुंचने के बाद यहां के प्राकृतिक सौंदर्य ने गुरुदेव का मन मोह लिया था. गिरिडीह में रहते हुए ही रवीन्द्रनाथ टैगोर ने शंति निकेतन के विकास का संपूर्ण प्रारूप् तैयार किया था.
गुरुदेव को उनकी कविता 'गीतांजली' पर साहित्य का नोबेल पुरूस्कार प्राप्त हुआ था. उन्हें जो धनराशि नोबेल पुरूस्कार के रूप में मिली थी उसे शांति निकेतन को दान में देकर उस पूंजी से भारत के पहले कृषि बैंक की स्थापना रैयत को महाजनों के कर्ज के चंगुल से मुक्त करवाने के उदेश्य से किया था.
रवीन्द्रनाथ ठाकुर के काव्य में सृष्टि की नानाविध लीलाओं ने अभिव्यक्ति पायी है. आत्मीयता के डोर से बंधा भावुक सुकुमार कवि के काव्य में जो दिव्य दर्शन है प्रकृति के प्यार का, मनुहार का उल्लास का आनंद लेने के लिए सुंदर मन का होना आवश्यक शर्त है. गुरुदेव के गीत विश्वगीत हैं. विद्यापति के श्रृंगार रस और कबीर के रहस्यवाद से प्रभावित गुरुदेव की अधिकांश कविताएं श्रृंगार रस और रहस्यवादी या आध्यात्मिकता के बेहतरीन उदाहरण हैं. गुरुदेव की दृष्टि की व्यापकता उनके संपूर्ण रचनाकर्म में दिखाई पड़ती है.
हिन्दी कवि कबीर को सर्वप्रथम रवीन्द्रनाथ ने ही पहचाना तथा कबीर की रचनाओं का बांग्ला और अंग्रेजी में अनुवाद किया. प्रेम करके और प्रेम बांटकर व्यक्ति आत्म विस्तार कर सकता है और परम आंनद प्राप्त कर सकता है. गुरुदेव कहा करते थे कि ''केवल प्रेम ही वास्तविकता है जो महज एक भावना नहीं है, यह एक परम सत्य है जो सृजन के ह्दय में वास करता है.'' सुन्दरता और प्रेम के पुजारी होने की वजह से रवीन्द्रनाथ टैगोर दूसरे के दुख से दुखी और सुख से सुखी होते थे.
रवीन्द्रनाथ टैगोर उच्चकोटि के गीतकार, गायक और संगीतकार भी थे. उनके द्वारा विकसित संगीत विद्या को 'रवीन्द संगीत' के नाम से जाना जाता है, जो बहुत ही मधुर और संगीत के दृष्टिकोण से सुगम है जिसका आंनद संगीत को न समझने वालों को भी उतना ही मिलता है जितना संगीत के जानकार को. बंकिमचंद्र चटोपाध्याय रचित गीत 'बंदेमातरम' की धुन गुरुदेव ने ही बनायी थी तथा 1896 में कांग्रेस अधिवेशन में पहली बार स्वयं इसे गाया भी था.
गुरुदेव एक उत्कृष्ट चित्रकार भी थे, उनके बनाए चित्रों ने समूचे विश्व में धूम मचा दी.राष्द्रीय संग्रहालय में उनके बनाए चित्र संग्रहित हैं. हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्षधर गुरुदेव अपने उपन्यासों 'गोरा' और 'चार अध्याय' में हिन्दू-मुस्लिम संबंधों का बहुत ही मार्मिक रचनात्मक चित्रण किया है.
जलियांवाला बाग कांड का प्रतिकार जिस तरह रवीन्दनाथ करना चाहते थे, उससे महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू सहित कांग्रेस के तमाम नेतागण तैयार नहीं हु,ए जिसकी वजह से रवीन्द्रनाथ आहत भी हुए थे. आहत मन से जो गीत लिखा था वह था 'जोदी तोर डाक शुने केउ न आशे तोबे ऐकला चलो रे.' इस गीत का विश्व में बोले जाने वाली तमाम भाषाओं में अनुवाद हो चुका है. जलियांवाला बाग कांड के विरोध में रवीन्द्रनाथ ने अंग्रेजों द्वारा दिए गए 'नाइटहुड' की उपाधि 'सर' का परित्याग करते हुए अपने देश के प्रति अतुलनीय देशभक्ति का उदाहरण पेश किया था.
गुरुदेव ने कई रचनाएं जैसे 'रक्तकरबी', विसर्जन', चंडालिका, श्यामा, पुजारिनी, घरे-बाहरे रचीं, जिनमें सामंतवाद, संप्रदायवाद, जातिवाद, देवदासी प्रथा के खिलाफत मुखरित हुआ है. बंगालियों को बंगाल से बाहर के भारत से परिचय कराने के लिए राणाप्रताप, शिवाजी, बंदा बैरागी, गुरू गोविंद सिंह पर मार्मिक कविताएं लिखी.
12 दिसंबर 1911 को जार्ज पंचम ने दिल्ली में भारत की गद्दी संभाली, तब कांग्रेस ने रवीन्दनाथ टैगोर से प्रशस्ति गीत लिखने का अनुरोध किया, जिसे गुरुदेव ने ठुकरा दिया और उसकी जगह पर भारत गीत 'जन गण मन अधिनायक' रच दिया. इतिहास गवाह है कि 26 दिसंगर 1911 के कांग्रेस अधिवेशन की शुरूआत बकिमचंद्र रचित 'बंदेमातरम' गीत से हुई, जिसकी धुन स्वयं गुरुदेव ने बनायी थी और खुद गाया भी था. दूसरे दिन की शुरूआत रवीन्द्रनाथ ने अपने रचे गीत 'जन गण मन अधिनायक' से की, जिसका स्वरूप ईश्वर से आर्शीवाद प्राप्त करने वाला प्रार्थना गीत का था. विश्व के किसी भी कवि ने अपने देश की आजादी के लिए उतना नहीं लिखा, जितना रवीन्द्रनाथ ने.
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