Wednesday, May 8, 2013

वन सम्पदा हड़पने में सरकारें पूँजीवादी ताकतों के साथ खड़ी हैं

वन सम्पदा हड़पने में सरकारें पूँजीवादी ताकतों के साथ खड़ी हैं


हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा माँगेंगे

इक खेत नहीं इक देश नहीं हम सारी दुनिया माँगेंगे

                                -फै़ज़ अहमद 'फै़ज़'

 भारत के वनों में वनाश्रित श्रमजीवियों की एक भारी तादाद् मौजूद है, जिसकी संख्या लगभग 15 करोड़ है, जो वनों में स्वरोज़गारी आजीविका से जुड़े हुये हैं। जैसे वनोपज को संग्रह करना, वनोपज को बेचना, वनभूमि पर कृषि करना, वृक्षारोपण, पशुपालन, लघु खनिज निकालना, वनोत्पादों से सामान बनाना, मछली पकड़ना, निर्माण कार्य, व आग बुझाना आदि। वनाश्रित समुदाय का एक बहुत छोटा सा हिस्सा, जो कि वनविभाग के कार्यों में मज़दूरों के रूप में प्लांटेशन करना, आग बुझाना व निर्माण का कार्य भी करते हैं। वनाश्रित श्रमजीवी समुदायों को मूल रूप से दो श्रेणियों में देखा जा सकता है, एक जो सदियों से जंगल में पारम्परिक तरीके से अपनी मेहनत से आजीविका चलाते चले आ रहे हैं, जिन्हें हम ''वनजन'' कहते हैं, जो मुख्यतः आदिवासी व मूलनिवासी समुदाय हैं और दूसरा जो कि अँग्रेज़ी शासन काल मे वनविभाग द्वारा जंगल क्षेत्र में वृक्षारोपण या फिर अन्य कामों के लिये बसाये गये थे जिन्हें 'वनटांगिया वनश्रमजीवी' कहते हैं। वनाश्रित समुदाय में अनुसूचित जनजाति की संख्या 56 फीसद है, जबकि बाकि गैर आदिवासी हैं, जिसमें आदिवासीदलितअति पिछड़े वर्ग की जातियों के लोग शामिल हैं। वहीं घुमन्तु पशुपालकों में बहुत बड़ी तादाद् मुस्लिम समुदाय की भी है। वनों में रहने वाले श्रमजीवी समाज में सबसे बड़ा हिस्सा महिलाओं का है। इतनी भारी तादाद् में होते हुये भी वनश्रमजीवी समुदाय प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं देते और न ही इन्हें व्यापक श्रमजीवी समाज के हिस्से के रूप में देखा जाता है। जबकि यह तबका आदिकाल से प्राथमिक उत्पादन का काम करता आ रहा है और देश की सम्पदा को बढ़ाने एवं संरक्षित रखने में इस तबके की अहम् भूमिका रही है। पूँजीवादी विकास में पूँजी के प्रारम्भिक संग्रहण (Primitive accumulation) की प्रक्रिया से ही इनके श्रम की बेतहाशा लूट हुयी है। जिसके तहत वनाश्रित श्रमजीवी समाज का एक बड़ा हिस्सा खासतौर पर वनटाॅगिया वनग्रामवासी बंधुआ मज़दूरी व दासता का शिकार रहा।

ब्रिटिश काल से वनाश्रित समुदाय पर भारी हमले शुरू हुये जब साम्राज्यवादी पूँजीवादी विकासके नाम पर वनसम्पदा का भारी दोहन शुरू किया गया। जिसके कारण सदियों से जंगल में नैसर्गिक रिश्ता रखने वाले यह समुदाय अपनी जगह से बेदख़ल होना शुरू हो गये। इसके खिलाफ आदिवासी समाज ने अपने स्वायत्तता और संसाधनों को बचाने के लिये समझौते किए बगैर लम्बे निर्णायक ऐतिहासिक संघर्ष किए। यह संघर्ष तिलका माझीसिद्धु-कान्हुबिरसा मुंडा,सीतारामा राजू व लाखों आदिवासियों के नेतृत्व में लड़े गये। हालाँकि यह संघर्ष क्षेत्रीय स्तर पर चलते रहे और अँग्रेजी शासन इन आन्दोलनों को फौरी तौर पर दबाते रहे। लेकिन इन सशक्त आन्दोलनों की कौंध से शासकों को यह समझ में आ गया, कि अब उनकी तानाशाही ज्यादा दिन नहीं चलेगी व यह विद्रोह किसी भी समय राष्ट्रीय स्वरूप ले सकते हैं। इसलिये हमारी प्राकृतिक सम्पदा की लूटमार के 100 साल के बाद अँग्रेजी शासन काल ने 19वीं सदी के आखिरी हिस्से में वननीति और वनकानून जैसे काले कानूनों को बना कर लूट को कानूनी रूप से स्थापित कर दिया। अँग्रेज़ों द्वारा बनाये गये हर वन कानून में प्राकृतिक सम्पदा की लूट निहित है।

सन् 1947 में भारत उपनिवेशिक काल से आजाद हुआ और 1950 में देश का नया संविधान लागू हुआ जिसके तहत भारत एक प्रजातान्त्रिक देश के रूप में घोषित हुआ। उस समय करोड़ों वनाश्रित समुदाय को लगा कि उनकी आज़ादी का भी सपना साकार होने का वक़्त आ गया है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और वनक्षेत्र में अँग्रेजी वनशासन प्रणाली को भारत की नयी सरकार द्वारा कायम रखा गया और लोगों को अपने बुनियादी अधिकारों से वंचित रखा गया। जबकि संविधान के अनुच्छेद 21 में जीने के अधिकार में यह स्पष्ट है, कि देश के प्रत्येक नागरिक को सम्मानजनक जीवन जीने के लिये आजीविका व रोज़गार का अधिकार है। लेकिन उल्टे सरकार ने वनविभाग के ज़रिये से सार्वजनिक जमींन को हड़पने की प्रक्रिया और भी तेज़ कर दी। वन विभाग द्वारा वन भूमि की सीमा को ग्राम समाज की भूमि पर अवैध कब्ज़ा करके बढ़ाया जाता रहा और साथ ही जंगल का कटाव और विनाश भी बादस्तूर ज़ारी रहा। बड़े-बड़े बांध, बड़े-बड़े बिजली के पावर प्लांट, खदानें, कारखानों के ज़रिये से विकास के नाम पर जंगल उजड़ते गये,लोग बेघर होते गये और बेरोज़गारी बढ़ती गयी। जब इन सबके विरोध में जनान्दोलन शुरू हुये तो राजसत्ता की हिंसा भी बढ़ गयी। धीरे धीरे पूरा जंगल क्षेत्र हिंसा का गढ़ बन गया, नतीजे में न तो जंगल बचा ना लोग और ना ही बची जैव विविधता।इस हिंसा और लूटमार को ज़ारी रखने के लिये सरकार द्वारा और भी सख्त कानून बनाये गये। कभी वन्य जन्तु को बचाने के नाम पर, तो कभी पर्यावरण को बचाने के नाम पर।

आज़ादी के तीन दशक पूरा होते-होते वनाश्रित समुदाय को समझ में आ गया कि वो आज भी वनविभाग के गुलाम हैं और इस गुलामी से मुक्ति पाने के लिये उन्हें दूसरी आज़ादी की लड़ाई लड़नी पड़ेगी। 90 के दशक तक आते-आते देसी विदेशी कम्पनियाँ थोक के भाव में जंगल क्षेत्र में घुसने लग गयीं और जलजंगलज़मीन और पहाड़ की लूट चरम सीमा पर पहुँच गयी।  इसके खिलाफ फिर से लोग इकट्ठे हो कर संगठित प्रतिरोध आन्दोलन की तरफ बढ़ने लगे। 80 के दशक के बाद सामाजिक आन्दोलनकारी शक्तियाँ व अन्य जनान्दोलन भी अब इन जनान्दोलनों के साथ जुड़ने लग गयीं, जिसके तहत क्षेत्रीय और राष्ट्रीय तालमेल भी बढ़ने लगा।

ऐसे ही तालमेल से राष्ट्रीय मंच बनने की प्रक्रिया सन् 1993-94 से शुरू हुयी और सन् 1998 में राष्ट्रीय वन श्रमजीवी मंच की स्थापना हुयी। वनाधिकार आन्दोलन के लिये यह देश में महत्वपूर्ण कड़ी बना। मंच के बनने की प्रक्रिया में एक विशेष पक्ष यह रहा कि इसके गठन के साथ यह भी तय किया गया कि भविष्य में मंच एक राष्ट्रीय स्तर पर वनजन श्रमजीवी फैडरेशन का भी गठन करेगा, ताकि मौजूदा जनविरोधी वनप्रशासन की व्यवस्था को हटा कर जनवादी प्रजातान्त्रिक आधारित सामुदायिक स्वशासन की प्रक्रिया को स्थापित किया जा सके।

मंच ने शुरू से ही राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय श्रमजीवी आन्दोलन के साथ एक रिश्ता कायम किया, जिसमें पर्यावरणीय न्याय, आजीविका के अधिकार और श्रम अधिकार मुख्य नीतिगत मुद्दे रहे। संगठनात्मक गतिविधियों के अलावा दो अन्य प्रक्रिया भी समानान्तर रूप से वनक्षेत्र में चल रही थीं,  एक थी पर्यावरणवादी प्रक्रिया जिसने वनप्रशासन के ढाँचे पर सवाल उठाया व संसाधनों की रक्षा की बात तो की, लेकिन उन्होंने वनप्रशासन में उपनिवेशिक ढाँचे के बुनियादी परिवर्तन की बात को नहीं उठाया व आजीविका के प्रश्न को भी नज़रअंदाज़ किया। वे मौज़ूदा ढाँचे जैसे संयुक्त वन प्रबन्धनइको विकास योजनासामाजिक वानिकीकरण के अन्दर ही विकल्प तलाशते रहे। दूसरी राजनैतिक प्रक्रिया 80 के दशक के बाद शुरू हुयी जो अति वामपंथी संगठनों के नेतृत्व में ( जिसे आज माओवादी कहा जाता है) वनक्षेत्र में सक्रिय हुयी जो कि कई क्षेत्रों में समुदाय के बीच प्रतिष्ठित भी हुयी। उन्होंने भी मौजूदा जनविरोधी प्रशासनिक व्यवस्था को खत्म करने की बात जरूर की, लेकिन समुदाय के स्वशासन को आधार नहीं माना, विकल्प के रूप में उन्होंने उनकी पार्टी द्वारा नयी राजसत्ता की स्थापना की बात की। इन्हीं अलग धाराओं के वाद विवादों के बीच मंच ने एक ऐसा नया कानून बनाने की मुहिम शुरू की जो कि सरकार और प्रभुत्ववादी शक्तियों के एकाधिकार को वनों में खत्म करे व वनप्रशासन में एक जनवादी ढाँचे की स्थापना हो सके।

 राष्ट्रीय वनजन श्रमजीवी मंच

NFFPFW (File Photo)

राष्ट्रीय वनजन श्रमजीवी मंच को बनाने में समुदाय की महिलाओं का विशेष योगदान रहा है। वनस्वशासन व वनाधिकार आन्दोलन के मुददे पर वे बेहद ही सक्रीय रूप से अगुवा की भूमिका में रही व उन्होंने वनों के अन्दर व्यापत राजसत्ता की हिंसा की दिलेरी से डट कर सामना किया। उन्होंने देश के कई वनक्षेत्र जैसे कैमूर व बुन्देलखण्ड में वनाधिकार कानून 2006 को अपने ही स्तर पर सामूहिक रूप से लागू किया व हज़ारों हज़ारों हैक्टयर भूमि पर भूमि को दखल कर सामूहिक खेती व जंगल लगाने की परम्परा को शुरू किया। यहीं वजह है कि आज वनों के अन्दर जो टकराव उत्पन्न है वह राजसत्ता और महिलाओं व ग़रीब वर्गो के रूप में ही सामने आ रहा है। महिलाए अपने वन व भूमि अधिकार के लिये बेहद ही एकजुटता के साथ संघर्ष करती रही और मंच के अन्दर भी संगठनात्मक रूप से महिला नेतृत्व को सामने ले कर आयी। उनकी सोच काफी दूरगामी है जो कि थोड़े ही समयकाल के लिये नहीं बल्कि उनके संघर्ष में आने वाली पीढ़ीयों के लिये आजीविका की सुरक्षा व संसाधनों के अधिकार की बात निहित रही। उपनिवेशिक काल की संस्था वन विभाग के बारे में उनकी सोच भी काफी स्पष्ट हुयी कि जब तक वनविभाग को पूरे देश से नहीं भगाया जायेगा तब तक यह उपनिवेशिक दोहन बादस्तूर ज़ारी रहेगा इसलिये उन्होंने यह नारा दिया है ''वनविभाग भारत छोड़ो''। वनों के अन्दर सांमती, पूँजीवादी, पितृ सत्ता शक्तियों, माफिया, ठेकेदारों, पुलिस-वनविभाग-प्रशासन की मिलीभगत के तहत उत्पीड़न व ऐतिहासिक अन्याय खत्म करने के लिये महिलाओं की सोच काफी स्पष्ट रही कि देश व्यापी संगठन बना कर ही इन दमनात्मक ताकतों को शिकस्त दी जा सकती है। इसलिये यूनियन बनाने के बारे में भी बढ़ कर आगे आ रही है चूँकि उनका मानना है कि यूनियन बनाने से उनकी सुरक्षा, सम्मान को हासिल कर पायेगी व  महिला उत्पीड़न समाप्त करने में और भी मजबूत होंगी।

यह उल्लेखनीय है कि वनप्रशासन या पर्यावरणीय संकट की जो बहस मुबाहिसा चलती आ रही है उसमें समुदायों की कोई भागीदारी नहीं रही व समुदायों को हमेशा अलग रखा गया। इन वाद-विवाद का आधार मध्यवर्गीय विशेषज्ञ और अभिजात वर्ग तक ही सीमित रही है। स्मरण रहे आधुनिक तकनीकी शिक्षा और मध्यमवर्ग का जन्म अँग्रेज़ी शासन काल में अंग्रेज़ों द्वारा ही उपनिवेशिक शक्ति द्वारा की गयी थी। ताकि अँग्रेजी शासन के काम काज सुचारू रूप से चलाई जा सके और उस समय चल रही जन प्रतिरोध आन्दोलनों को रोकने के लिये उपनिवेशिक शासन को मान्यता मिले। यह इसलिये भी जरूरी था क्योंकि यह सर्वविदित है कि अँग्रेज़ी शिक्षा प्रणाली से बने विशेषज्ञ मध्यम वर्ग का जन्म अँग्रेज़ी शासन को मजबूत करने के लिये किया गया था, इसलिये शुरू से ही यह वर्ग जनान्दोलनों के विरोधी रहे हैं। इसी वजह से जल, जंगल, ज़मीन के बन्दोबस्त में हमेशा शासकीय विचार मजबूत रहे और जनवादी विचारों को आगे नहीं आने दिया गया। नतीजे में जल, जंगल, ज़मीन के सम्बन्ध में बने तमाम कानूनों में जनवादी व प्रजातान्त्रिक खाका न के बराबर था। संविधान बनने के बाद देश में जो महत्वपूर्ण ज़मीदारी विनाश कानून पारित हुआ, उसमें भी तमाम खामियों को जानबूझ कर रखा गया ताकि जनवादी परिसर मजबूत न हो सके। इसलिये उस कानून से भूमिहीन और वंचित लोगों को न्याय नहीं मिल सका। इस सन्दर्भ में देखा जाये तो वनों के अन्दर जनवादी कानून पारित करने के लिये शुरू की गयी बहस राजनैतिक दृष्टिकोण से एक महत्वपूर्ण प्रसंग रहा। वामपंथी राजनैतिक दलों ने इस मुद्दे को न्यूनतम साझा कार्यक्रम में भी शामिल कराया और संसद में भी आवाज़ को उठाया। इस देश में एक नया राजनैतिक माहौल बनाजिसके कारण सन् 2006 में वनाधिकार कानून को संसद में पारित किया गयाजिसे जनान्दोलनों की ही जीत कहा जा सकता है।

वनाधिकार कानून के पारित होने से वनाधिकार आन्दोलन का नया अध्याय शुरू हुआ जब पहली बार वनाश्रित समुदाय के जनवादी अधिकार का मुददा राजनैतिक पटल पर आया। इस के साथ-साथ दो और महत्वपूर्ण कानून भी पारित हुये सन् 2005 में राष्ट्रीय रोज़गार गांरटी कानून और 2008 में अंसगठित मज़दूरों के लिये सामाजिक सुरक्षा कानून।

 

देश के वनाश्रित समुदाय के साथ हुये ऐतिहासिक अन्याय को तो संसद ने जरूर स्वीकारा लेकिन इस अन्याय को समाप्त करने की राजनैतिक इच्छा शक्ति की कमी है। जिसके कारण इन तमाम जनपक्षीय कानूनों का प्रभावी क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है। वहीं वन एवं ग्रामीण क्षेत्र में चल रहे जनान्दोलनों का एक नया स्वरूप भी सामने आ रहा है, जिसके तहत समुदायों में एक अभूतपूर्व चेतना का विकास हो रहा है, जो आज नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ आन्दोलन में एक अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं। जबकि देखा जाये तो अन्य सामाजिक व राजनैतिक शक्तियाँ पीछे हट रही हैं। अब ज़रूरत है इसी संगठित प्रक्रिया को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने की, ताकि वनाश्रित समुदायों की बिखरी हुयी शक्तियाँ एक राष्ट्रीय शक्ति के रूप में स्थापित हो सकें।

वनक्षेत्र में जनवादी ढाँचा खड़ा करने की समझदारी के तहत राष्ट्रीय वन-जन श्रमजीवी मंच ने सन् 2012 में अपने चौथे राष्ट्रीय सम्मेलन मे सर्वसम्मित से तय किया था, कि अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये एक अखिल भारतीय यूनियन का गठन किया जायेगा, जिसके जरिये से सामुदायिक नेतृत्व को राष्ट्रीय राजनैतिक पटल पर स्थापित किया जा सके। यह अखिल भारतीय यूनियन वनक्षेत्र में श्रम कानून व सामाजिक सुरक्षा कानून तथा वनाधिकार कानून को लागू कराने के लिये संघर्ष करेगी और वनक्षेत्र में विद्यमान विविधताओं को मान्यता देते हुये एक संघीय ढाँचे के तहत यूनियन का निर्माण करेगी। यह यूनियन अपने लक्ष्य और उदे्श्य की प्राप्ति एक लड़ाकू जनवादी संघर्ष से प्राप्त करेगी। जिसमें संगठन के तमाम सदस्य हिस्सेदारी करेंगे। इस यूनियन का उदे्श्य होगा महिलाओं के नेतृत्व को विकसित करना, भारत के वनों में वनाधारित व्यवसायों व वननिर्भर समुदायों में स्वरोजगार विकसित करना, और वनोत्पादों व उनके व्यापार पर निर्भर लोगों के लिये सहकारिता समूहों का गठन, महिलाओं के आर्थिक और परिवार में वैतनिक व अवैतनिक दोनों कार्यों को मान्यता दिलाना, देश के वानिकी संसाधानों पर प्राथमिक उत्पादकों का सामाजिक नियंत्रण स्थापित करना आदि।

इस सम्मेलन में विभिन्न क्षेत्रों से आये हुये प्रतिनिधिगण वनाधिकार आन्दोलन के महत्वपूर्ण राजनैतिक, कानूनी और सांगठिनक मुददे पर चर्चा करके प्रस्ताव पारित करेगें व एक भावी कार्यक्रम की भी रूपरेखा तैयार करेगें। चर्चा के आधारभूत मुददे निम्नलिखित होगें:

1.    आजीविका की सुरक्षा एवं पर्यावरणीय न्याय

2.    वनाधिकार आन्दोलन में श्रम अधिकार कानूनों की प्रसांगकिता

3.    वन जन श्रमजीवीयों की सामाजिक एवं राजनैतिक सुरक्षा

4.    महिला सामुदायिक नेतृत्व का विकास

सांगठिनक मुद्दों की चर्चा नये संगठन के प्रारूप संविधान दस्तावेज़ के आधार पर रहेगी। जनान्दोलन और संगठन के अटूट रिश्ते को मजबूत करते हुये यूनियन की सांगठिनक ढ़ाचा का गठन किया जायेगा।

आज वनक्षेत्र में पूँजीवादी शक्तियाँ प्राकृतिक सम्पदाओं पर सीधा हमला कर के उसको हड़पना चाहती हैं और समुदाय और प्रगतिशील शक्तियाँ इनसे सीधे टकराव में हैं इस टकराव में सरकारें पूँजीवादी ताकतों की तरफ हैं। इसलिये यह तय करना काफी ज़रूरी है कि कौन सी शक्तियाँ हमारी दोस्त हैं और कौन सी ताकतें पूँजीवादी ताकतों के साथ हैं। जिसका मुकाबला करने के एक लिये सटीक रणनीति बनाना नितान्त ज़रूरी है। अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन मित्र शक्तियों को एकजुट करके पूँजीवादी, सामन्तवादी और वन माफियाओं के खिलाफ एक निर्णायक संघर्ष की अगुवायी करते हुये एक समता वादी, सामूहिक व्यवस्था को कायम करने के लिये संघर्ष करेगी। इसलिये एक दीर्घकालीन समग्र आन्दोलन बनाने की रणनीति को लेकर यूनियन गठन का स्थापना सम्मेलन पुरी, उड़ीसा में दिनाँक 3 से 5 जून 2013 को टाउन हाल में आयोजित किया गया है। इस समय उड़ीसा में वन और प्राकृतिक संसाधनों के मुद्दों पर कई महत्वपूर्ण आन्दोलन चल रहे हैं, जैसे पास्को विरोधी,नियमागिरीकंर्लिंगा नगर आदि जिसके साथ अन्य राज्यों में चल रहे आन्दोलनों का तालमेल जरूरी है। उड़ीसा में चल रहे तमाम जनआन्दोलन इस सम्मेलन में अपने प्रतिनिधि चुन कर इस सम्मेलन में शामिल होकर मजबूत संगठन का निर्माण करते हुये वनसंसाधन और वनाश्रित समुदाय की आजीविका को सुरक्षित रखें ।

यहां सागर सागर मोती हैं यहां पर्वत पर्वत हीरे हैं

ये सारा बाग़ हमारा हैहम सारा खज़ाना माँगेंगे……….

 (अखिल भारतीय वनजन-श्रमजीवी यूनियन के टाउन हालपुरीउड़ीसा में आगामी 3-5 जून 2013 को होने वाले स्थापना सम्मेलन का कंसेप्ट नोट)

http://hastakshep.com/intervention-hastakshep/agitation-concerns/2013/05/09/governments-are-stand-with-capitalist-to-grab-forest-property#.UYtBL6IhonU

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