Monday, 16 September 2013 10:45 |
अशोक लाल दलितों के लिए भी उदारचित्त सवर्ण सुधारवादियों ने बहुत कुछ किया है। पहली बात तो यह कि उन्हें दलित बनाया। फिर यह फरमान जारी किया कि हिंदुस्तान के कोने-कोने में हजारों किस्म की अलग-अलग आस्थाएं रखने वाले दलित और अनुसूचित जाति वाले भी एक अखंड हिंदू धर्म के बंदे हैं। अब सवर्ण उन्हें अपने मंदिरों, अपने घरों से कोसों दूर रखें तो उनकी मर्जी- उन्होंने दलित और आदिवासियों को अपने धर्म में शामिल करने का उपकार किया है, बराबरी के इंसान बनाने का ठेका नहीं लिया है! गुजरात 2002 में एक सौ आठ दलितों की बलि देकर उन्हें शहीद भी बनाया गया। दरियादिली और उनकी राजनीतिक उपयोगिता की हद यह कि अगर सवर्णों के जुल्मो-सितम या छूतछात की वजह से वे किसी और धर्म के अनुयायी बन गए तो उन्हें फिर से हिंदू धर्म में परिवर्तित किया जा सकता है। ऐसे राज्यों में भी, जहां सवर्णों ने धर्म बदलने के खिलाफ कानून बनाया है। मेरा जन्म भी एक हिंदू परिवार में हुआ है। लिहाजा मैं काफी हद तक हिंदुओं के बीच ही उठा-बैठा हूं। लेकिन मैं उस हद तक अपनी धार्मिक विरासत को नहीं समझ पाया, जिस हद तक तरुण विजय समझ पाए हैं। अगर उनका कहा मानूं तो मुझे अपने घर का कूड़ा साफ करने की क्या जरूरत है, जब मैं किसी और के ऊपर- खासकर 'म्लेच्छों' के ऊपर- कीचड़ उछाल सकता हूं। क्यों न मैं अपना और सबका ध्यान ईद के मौके पर, एक महीने के निर्जल उपवास के बाद, की गई कुर्बानियों की तरफ ले जाऊं? वैसे भी मैं गोश्त का काफी शौकीन हूं और इंतजार करता हूं कि कोई इफ्तार और ईद के मौके पर मुझे बुलाए जरूर। एक फायदा और है। मैं टीवी कैमरों के सामने सुंदर-सुंदर बखान करके अपनी दरियादिली का बआवाजे-बुलंद एलान भी कर सकता हूं! अंधविश्वासों का जन्म आस्था के बाहुबलियों और व्यापार करने वालों के आंगन में ही होता है- और यह बात हर धर्म पर लागू होती है। दिवंगत दाभोलकरजी! जैसा गांधीजी के साथ हुआ या किया गया वैसा ही आपके साथ होगा। आपकी कसम खाएंगे और आप ही को रोजाना हम तिल-तिल कर मारते रहेंगे। हमारे विश्वासों को आपने वैज्ञानिक रूप से अंधविश्वासों की संज्ञा देने की गुस्ताखी जो की।
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Monday, September 16, 2013
मतांतर : आस्था और बाहुबल
मतांतर : आस्था और बाहुबल
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