Sunday, April 21, 2013

झारखंड नहीं लूटखंड है यह प्रदेश

झारखंड नहीं लूटखंड है यह प्रदेश

सरोजिनी बिष्ट

jharkhand-mapआजादी के बाद से देश में सबसे अधिक भूमि लूट हुई है' इस सच को हमारे देश का केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय भी स्वीकार चुका है। खासकर आदिवासी बहुल राज्य जमीन के मामले में लूटखंड में तब्दील होते जा रहे हैं। हद तो यह है कि जो जमीन का मालिक है और उसके पास पुख्ता सबूत भी हैं तब भी उसको अपना मालिकाना साबित करने की एक अलग ही लड़ाई लडऩी पड़ रही है। झारखंड के नगड़ी मौजा के किसानों की विडंबना यही है कि वे बरसों से अपनी जिस भूमि पर खेती कर रहे हैं, सरकारी फाइलों में उसका अधिग्रहण 55 साल पहले ही हो चुका है और अब मौजूदा एनडीए सरकार उन फाइलों में साढ़े पांच दशक पहले अधिग्रहित हुई 227 एकड़ कृषि भूमि को गरीब किसानों से छीनकर शैक्षिणिक संस्थानों का निर्माण करवाना चाहती है। नगड़ी के हजारों गरीब आदिवासी किसान पिछले कई महीनों से अपनी जमीन बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं जिस पर राज्य सरकार की गिद्ध दृष्टि लगी हुई है। झारखंड की राजधानी रांची से करीब तीस पैंतीस किलोमीटर की दूरी पर बसा है नगड़ी मौजा जो मूलत: उरांव और मुंडा जनजातीय बहुल क्षेत्र है। नौजवान पीढ़ी द्वारा शिक्षित होकर नौकरियों की ओर बढऩे के बावजूद आज भी कृषि ही यहां के जनजीवन का मुख्य आधार है। राज्य की अर्जुन मुंडा सरकार आदिवासियों के इसी जीवनाधार को आतंक के बल पर छीनने के मंसूबों में लगी है। दरअसल सरकार झारखंड की सूरत चमकाने के इरादे से उन गरीब आदिवासियों की खेती योग्य भूमि पर देश के प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों की इमारत खड़ी करना चाहती है जिसमें लॉ युनिवर्सिटी, आईआईएम, आईआईआईटी जैसी संस्थाने शामिल हैं। 227 एकड़ खेती योग्य भूमि का अधिग्रहण कर मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने वहां काम की शुरुआत तो जरूर करवा दी लेकिन हजारों ग्रामीणों के जनआंदोलन के चलते फिलहाल अभी वहां काम की गति धीमी ही है। मुख्यमंत्री के पास सीधा एक तर्क है कि नगड़ी की इस 227 एकड़ कृषि भूमि का अधिग्रहण तो 1957 में ही तत्कालीन बिहार सरकार के आदेश पर रांची जिला प्रशासन ने कर लिया था और ग्रामीणों को मुआवजा भी दे दिया गया था इसलिए अधिग्रहण रद्द करने का तो कोई सवाल ही नहीं लेकिन अर्जुन मुंडा के तर्क के आगे एक सच यह भी है कि तब भी भू-मालिकों ने इस अधिग्रहण का जमकर विरोध किया था और चंद परिवारों को छोड़कर किसी ने भी मुआवजे की राशि नहीं ली थी जो आज भी ट्रैजरी में पड़ी हुई है। आज भी अधिग्रहीत कृषि भूमि किसानों के ही नाम है जिसका पुख्ता सबूत भी उनके पास मौजूद है और 1957 से लेकर आज तक वहां के किसान उस भूमि पर खेेती करके अपनी जीविका चला रहे हैं फिर एकाएक सरकार की यह गिद्ध दृष्टि कई तरह के संशय पैदा करती है। नगड़ी के 35 गांवों के हजारों ग्रामीण जमीन अधिग्रहण को रद्द करने की मांग पर पिछले कई महीनों से आंदोलन कर रहे हैं। इन आंदोलकारियों का कहना है कि झारखंड में बंजर भूमि की कोई कमी नहीं जहां शिक्षण संस्थानों की नींव डाली जा सकती है तो फिर सरकार इनकी खेती योग्य भूमि को ही क्यों लेना चाहती है। भले ही नगड़ी के इन हजारों आदिवासियों की जमीन की लड़ाई को कभी राष्टीय मीडिया ने जगह न दी हो लेकिन जब हमारी नजर कुडनकूलम के जनआंदोलन पर जाती है या मध्यप्रदेश और छत्ततीसगढ़ में पानी में उतरे आंदोलनकारियों को हम कैमरे की नजर से पल पल देखते हैं या उत्तराखंड में नदियों को बचाने के लिए सड़कों पर उतरे ग्रामीणों का आक्रोश हमारे सामने है तब झारखंड के इन आदिवासियों के जनसंघर्ष को भी हमें अपने सामने रखना होगा जहां पिछले कई महीनों से ये आदिवासी भीषण गर्मी और तेज बरसात की परवाह किए बिना लगातार शासक वर्ग के खिलाफ न केवल अपनी लड़ाई जारी रखे हुए हैं बल्कि इसका खामियाजा भी उन्हें दमनात्मक कार्रवाई के रूप में भुगतना पड़ा रहा है।

जल जंगल जमीन की लड़ाइयों का एक समृद्व इतिहास झारखंड का रहा है और यह लड़ाइयां अलग राज्य बनने के 12 वर्षों बाद भी अनवरत जारी है। समय के बदलते चक्र के साथ इन लड़ाइयों का तरीका भले ही बदलता रहा हो या कहें की विद्रोह की शक्ल विरोधों में बदल गई हो लेकिन कारण ज्यों के त्यों हैं। अपनी भूमि पर औपनिवेशिक ताकतों का अतिक्रमण रोकने और अपने जंगल, जमीन पर पुन: अपना अधिकार स्थापित करने की जो लड़ाइयां इनके पुरखों ने लड़ी, विरासत में मिली इन्हीं जनसंघर्षों की अगुवाई आज की पीढ़ी भी कर रही है और जब तक इनके संसाधनों और भावनाओं का दोहन होता रहेगा तब तक ये भी लड़ाइयां जारी रहेंगी इसलिए आने वाली पीढिय़ों को भी इसके लिए तैयार रहना पड़ेगा। भले ही झारखंड के जनयोद्धायों की शौर्य गाथाएं अलिखित होने के कारण कभी मुख्यधारा के इतिहास का हिस्सा न बन सकी हों लेकिन यह भी सच है कि 1857 में हुआ भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से सालों पहले ही झारखंड की धरती पर विद्रोहों की चिंगारियां धधक उठीं थीं। उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्रियों के आधार पर हम कह सकते हैं सन 1767 से लेकर 1900 तक होने वाले तमाम छोटे बड़े जनविद्रोहों या राजविद्रोहों, जिनमें हम तिलका माझी से लेकर पहाडिय़ा विद्रोह, कोल विद्रोह, संताल हूल, नीलांबर-पीताबंर विद्रोह, भुंइया विद्रोह, खरवार आंदोलन, तेलंगा खडिय़ा आंदोलन, बिरसा मुंडा उलगुलान आंदोलन और भी अन्य आंदोलनों को सामने देखते हैं तो कहीं न कहीं सबके पीछे कारण स्पष्ट थे, जंगलों की रक्षा, कृषि पर स्वंय का अधिकार, अस्तित्व की लड़ाई और विदेशी ताकतों पर लगाम लगाना और आज 21वीं सदी में होने वाले जनआंदोलनों के केंद्र में भी यही कारण व्याप्त हैं लेकिन आज के संदर्भ में यदि इन जनआंदोलनों को देखा जाए तो निश्चित ही उस विचलता और पीड़ा को भी देखा जा सकता है जो अपने ही बीच से तैयार शासक वर्ग के खिलाफ बगावत करने पर पैदा हुई हैं। झारखंड के आदिवासियों ने मुगल सेना से लेकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद तक से लोहा लिया क्योंकि उनके जीवनशैली में यह बाहरियों का आक्रमण और अतिक्रमण था लेकिन आज तो इस आजाद मुल्क में राज्य भी अपना है, शासन भी अपना और राजा भी अपना, फिर भी जंगल और जमीन की रक्षा का खतरा पल पल बना हुआ है।

15 नवंबर 2012 को झारखंड अपने उदय के 12 साल पूरा कर लेगा। लंबे संघर्ष और शाहदतों के बाद जब नवंबर 2000 में झारखंड देश के 28वें राज्य के रूप में सामने आया तो ढोल, मांदर, नगाड़ों और लोकनृत्यों से पूरा झारखंड झूम उठा। उम्मीद जगी कि अब यहां के आदिवासियों, मूलवासियों के दिन बहुरेंगे लेकिन जल्दी ही इस स्वप्न ने भी दम तोड़ दिया क्योंकि झारखंडियों के इस सपने के साथ साथ देश के एक खासवर्ग की लालसा ने भी जन्म लिया जिसने यहां के मूलवासियों के सपनों पर अपनी मोहर लगा उनको खरीदना शुरू किया। कहना न होगा कि यह खासवर्ग देश का वह पूंजीपतिवर्ग या कॉर्पोरेट घराने हैं जिन्होंने अपनी पूंजी के विशाल साम्राज्य के बल पर आदिवासियों की जमीन, जंगलों और खनिज संपदाओं का हमेशा ही दोहन किया है। जब झारखंड अलग राज्य बना तो देश के औद्योगिक घरानों को भी अपने लिए नई जमीनें तैयार करने का अवसर दिखने लगा क्योंकि यह वर्ग जानता था कि इस नए उदयमान आदिवासी बहुल राज्य को ठगना कोई कठिन बात नहीं। झारखंड बनने के साथ ही दो तरह के विचारों का उदय हुआ, एक जिसमें जल, जंगल, जमीन को बचाए रखने का संकल्प था और दूसरा ठीक इसके विपरीत जहां देश का औद्योगिक पूंजीवाद इनके क्षरण की योजनाएं बना रहा था यानी शोषक बनाम शोषित लेकिन इन्हीं दो वर्गों के बीच एक बिचौलिया वर्ग भी है जो अपने हित के लिए कॉर्पोरेट घरानों के हित को साधने में लगा है और वह है इस राज्य का शासक वर्ग या सरकार। झारखंड का यह एक ऐसा बिचौलिया वर्ग है जिसने आर्थिक क्रांति के नाम पर यहां की जनता की उम्मीदों और सपनों को पूंजीपतियों के बाजार में औने पौने दामों में बेचना शुरू किया और इस बिक्री की बदौलत स्वयं करोड़ों का मालिक बन बैठा। अपने जन्मकाल से ही झारखंड घोर राजनैतिक अस्थिरता का शिकार रहा जिसका लाभ औद्योगिक घरानों ने बखूबी उठाया और उठा भी रहे हैं। झारखंड की उर्वरा जमीन पर नजर गढ़ाए पूंजीपतियों ने पूंजी के बल पर अपने मुनाफे के समीकरणों को तो मजबूत किया लेकिन झारखंड की जनता के सपनों का समीकरण बिगड़ता ही जा रहा है। थैलीशाहों के बल पर यहां सरकारों का भविष्य बनता और बिगड़ता है। 12 सालों बाद भी झारखंड की सत्ताधारी राजनीति जनअकांक्षाओं पर खरा उतरती नजर नहीं आ रही। दरअसल हम कह सकते हैं कि सरकार न तो पूरी तरह से विकास के एजेंडों पर ही मुखर होकर काम कर पा रही है और न ही राज्य की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति ही कर पा रही है।

औद्योगिकीकरण के कारण विस्थापन और रोटी, रोजगार के लिए होने वाला पलायन झारखंड के लिए सदैव ही एक चुनौती भरा प्रश्न रहा है। झारखंड विकास मोर्चा के सुप्रीमों बाबूलाल मरांडी, जो पहले भारतीय जनता पार्टी के खास वफादारों में से एक थे बाद में उन्होंने अपनी अलग पार्टी बना ली, से लेकर झारखंड के दिशोम गुरु झारखंड मुक्ति मोर्चा के शिबू सोरेन, निर्दलीय मधु कोड़ा और तीन बार मुख्यमंत्री रह चुके भाजपा के अर्जुन मुंडा तक, कोई भी यहां की गंभीर समस्या विस्थापन और पलायन रोकने के लिए ठोस कदम उठाते नजर नहीं आए। गठबंधन सरकार की छिछालेदर कैसे होती है झारखंड ही एकलौता ऐसा प्रदेश है जहां इसे बखूबी देखा जा सकता है, अर्जुन मुंडा को छोड़ कोई भी मुख्यमंत्री अपना कार्यकाल डेढ़-दो साल से अधिक नहीं चला पाया स्वयं मुख्यमंत्री मुंडा भी पहले 2003 में पहली बार मुख्यमंत्री बने और लगभग एक साल रहे उसके बाद मार्च 2005 से मार्च 2006 तक दुबारा मुख्यमंत्री के पद पर बैठे और अब सितंबर 2010 से उनका ही शासन झारखंड में चल रहा है। हालांकि इस बाबत शासनकाल पूरा न कर पाने वाले मुख्यमंत्रियों के पास एक तर्क भी था कि यदि उन्हें पांच साल का शासन का समय मिल गया होता तो वे राज्य का कायाकल्प कर देते। यह एक ऐसा क्षेत्र था जिसकी अपनी एक खास भौगोलिक और सांस्कृतिक पहचान और धरोहरें थीं अपनी उन्हीं पहचान और धरोहरों के अस्तित्व को बचाने के लिए यहां अलग राज्य की मांग को लेकर सालों तक आंदोलन हुए। 15 नवंबर 2000, जब झारखंड अलग राज्य बना, उससे लगभग सौ साल पहले ही अलग राज्य की मांग की लड़ाइयां शुरू हो चुकी थीं। इन जनसंघर्षों ने एक शताब्दी का सफर तय किया तब कहीं जाकर उनके सपनों को आकार मिला लेकिन अलग राज्य बनते ही मानों इसकी ताक में बैठे राजनीतिक दलों का जोड़क-तोड़क कारगुजारियां भी शुरू हो गईं। मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा, जिन्होंने नवोदित झारखंड के विकास के मॉडल को कॉर्पोरेट घरानों के नजरिए से ही देखा। अपने शुरुआत के मुख्यमंत्रीत्वकाल में उन्होंने देश के बड़े बड़े औद्योगिक घरानों के साथ अंधाधुंध एमओयू कर डाले जिसमें उन घरानों को झारखंड में उद्योग लगाने का खुला निमंत्रण मुंडा सरकार ने दिया। 102 एमओयू करने वाले अर्जुन मुंडा शायद यह भूल चुके थे कि झारखंड पहले से ही विस्थापन और पलायन की विकराल समस्या से जूझ रहा है उसपर औद्योगिक घरानों को यहां बुलाकर वह अपने लोगों के विकास की नहीं विनाश की ओर ही बढ़ रहे हैं।

इसमें दो राय नहीं कि इस प्रदेश में सबसे ज्यादा सरकार चलाने का अवसर भाजपानीत एनडीए को ही मिला है और अर्जुन मुंडा का कार्यकाल अब तक का सबसे लंबा रहा है फिलहाल अभी हाल में उन्होंने अपने दूसरे मुख्यमंत्रीत्वकाल का दो साल पूरा किया तो कहीं न कहीं इस राज्य की जनआकांक्षाओं को दरकिनार करने का अधिक दोषी भी हम उन्हें ही मान सकते हैं। कहा भी जाता रहा कि 'यदि यहां उद्योग-धंधे फूलेंगे तो यहां कि जनता को बाहर गांव नौकरी करने नहीं जाना पड़ेगा, बड़ी कंपनियां यहां की जनता को रोजगार देंगी आदि आदि' वहीं दूसरी ओर तय समय सीमा के अंदर जमीन उपलब्ध न हो सकने के कारण एक के बाद एक कंपनियां झारखंड सरकार से किए अपने एमओयू तोड़ती चली गईं।

उद्योगों के लिए जमीनें चाहिए तो स्वाभाविक है पहले उन जमीनों से उनके हकदारों का मालिकाना छिछना होगा और इसका एक आसान रास्ता निकाला गया कि अरसों से उपेक्षित आदिवासियों को विकास की मुख्यधारा से जोडऩे का एक स्वप्न उनके आगे परोसा जाए, लेकिन जो जनता पहले ही बड़ी बड़ी कंपनियों की कारगुजारियां देख चुकी हो अब शायद उसे छलना आसान नहीं था। यह सर्वविदित है कि जब जब झारखंड में विकास का नारा देकर नई नई परियोजनाओं का काम हुआ तब तब यहां की जनता को सिवाय विस्थापन के और कुछ हासिल नहीं हुआ। आजादी के बाद से झारखंड में स्थापित औद्योगिक ईकाई एचईसी, कोयला उत्खनन कंपनियां बीसीसीएल, सीसीएल, ईसीसीएल आदि बोकारो थर्मल, टाटा स्टील, चंाडिल डैम, तेनुघाट डैम, मैथन डैम, नेतरहाट फिल्डफायरिंग रेंज, कोयलकारो पनबिजली परियोजना, स्वर्णरेखा परियोजना आदि के चलते लाखों लाख ग्रामीणों को विस्थापित होना पड़ा। आंकड़े बताते हैं कि इन ईकाइयों और परियोजनाओं के कारण झारखंड के लगभग 17 लाख लोग विस्थापित हुए। कई जगह तो इन परियोजनाओं के कारण गांव के गांव ही उजाड़ दिए गए लेकिन इन उजड़े गांवों को पुन: बसाने का काम आज तक नहीं हो पाया। विस्थापितों का न तो आज तक उचित पुनस्र्थापन ही हो पाया, न रोजगार ही मिल पाया और न ही उचित मुआवजा ही मिल सका। लंबे अरसे बाद आज भी झारखंड के अधिकांश हिस्से अपनी जायज मांगों को लेकर आंदोलित हैं। झारखंड की यह भयावह तस्वीर तभी साफ हो चली थी जब आजादी के बाद यह महसूस किया जाने लगा कि खनिज संपदा का मालिक झारखंड औद्योगिक ईकाइयों और विकास परियोजनाओं के लिए एक बेहतर विकल्प हो सकता है और हुआ भी ऐसा ही परियोजनाएं बनती गईं और लोग उजड़ते गए। अब नगड़ी के हजारों ग्रामीणों को भी उचित मुआवजे, रोजगार और बेहतर पुनर्वास का दु:स्वप्न दिखाया जा रहा है। पहले औद्योगिक ईकाइयों और परियोजनाओं ने झारखंड के ग्रामीणों को उजाड़ा अब शिक्षण संस्थानों के नाम पर इन्हें छला जा रहा है। यदि मुंडा सरकार अपने इरादों में कामयाब हो जाती है तो 35 गांवों के हजारों ग्रामीणों को एक बार फिर विस्थापन की मार झेलनी पड़ेगी।

'झारखंड के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा से हमारा एक ही सीधा सवाल है कि एक तरफ तो आप अकूत धन-संपदा के मालिक क्रिकेट खिलाड़ी महेंद्र सिंह धौनी को उनका सपनों का महल खड़ा करने के लिए बीच राजधानी तोहफास्वरूप कई एकड़ जमीन मुफ्त में न्यौछावर कर देते हैं दूसरी ओर विकास के नाम पर उन गरीब आदिवासियों की जमीन लूटने पर आमादा हैं जिनके लिए दो वक्त की रोटी जुटाना भी दुभर है।'

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