Friday, February 22, 2013

JATI EVAM BHRASHTACHAR डॉ. उदित राज

Indira Gandhi National Open University (IGNOU)

School of Humanities

New Delhi

 

 

International Conference

 

Literature and Marginality: Comparative Perspectives in African American Australian and Indian Dalit Literature

 

February, 20-22, 2013

 

 

CONCEPT NOTE

 

'Marginality' is generally employed to interpret and analyse socio-cultural, political and economic spheres, where disadvantaged people struggle to gain access to resources, and equal participation in social life. The superstructures of race in Africa, Australia, USA and caste in India inform, deform, and complicate the identities of the marginalized along lines of gender, class, and family structure. In the modern day debate, various facets of marginality have been discussed in scholarly circles in almost every disciplinary area including literature, history, sociology, and political science with implications for issues as diverse as justice, gender, equality and inequality. This academic exercise which engage experts from National and International arena will explore the convergences in imagination and expressions of writers like Ngugi and Achebe, Kim Scott and Alexis Wright and then Valmiki and Gaikwad.

 

Over the years, the traditional assumptions of disciplines have been challenged and scholars have also explored the role of the "canon" and debated on what the so called "great" (canonical) texts may be in their respective disciplines, and the more profound grounds of their canonicity. There is a great academic need to explore these comparative perspectives in African American and Australian, Indian Dalit Literature. The advent of literary and cultural theories in the literary field has brought major changes in the way of reading, interpreting and understanding literature and culture. This has empowered, in a significant way, marginalized discourses which often remained unnoticed by the hegemonic culture. This has constantly been argued that a comprehensive literary study of marginality and its epistemic role is necessary and would contribute to a better understanding of how humanistic knowledge has been created, structured and transmitted.

 

The proposed bilingual (Hindi and English) conference is to contextualize marginality in an Inter-disciplinary framework with reference to past and with its possible effects on life in future and also provide a comparative platform of literary study between Dalit, African, Australian and American discourses. Although the chief concern will be to review literature on marginality and figure out the points of coming together and departure in terms of marginalized writings yet scholarly contributions from every domain are also invited so that the inter-disciplinary or multi-disciplinary approaches can authenticate the main theme. The innovative, exciting, and intellectual discussion by the scholars of all domains will also help in promoting a high order research in this area.

 

The broad areas to be covered by the Seminar include: 

 

  • Subaltern Consciousness in African Australian American and Dalit Writings.
  • Parallelism and Ambivalences  in literature of the 'margins'
  • 'Art' and 'Aesthetics' of African Australian American and Dalit Writings
  • Literature of Marginality:  African American Australian and Dalit Literature.
  • Art, literature and films as modes of expression and Resistance
  • Issues of  language, form and genre
  • Nation and its Others
  • Autobiographies as layers of Identity and Resistance.
  • Representation of women, caste and Race.
  • Dynamics of Social exclusion - Issues, Trends and Prospects
  • The Subaltern Consciousness and the associated challenges
  • Politics of Empowerment and Subaltern issues.

 

Any other topic(s) relevant to the theme of the Conference is/are welcomed.

 



2013/2/2 officeofuditraj@gmail.com <officeofuditraj@gmail.com>
                                                                                                   जाति एवं भ्रष्टाचार
डॉ. उदित राज 
               
    गणतंत्र दिवस के अवसर पर एक समाजशास्त्री आशीष नंदी ने जयपुर साहित्य उत्सव मंे बयान दिया कि ''ज्यादातर भ्रष्टाचार मंे दलित, आदिवासी एवं पिछड़े वर्ग के लोग शामिल होते हैं।'' इस बयान के कई पक्ष हैं। निर्विवाद रूप से यह इन वर्गों को कमतर रूप में दिखाता है और निंदनीय है लेकिन इसके और भी पक्ष हैं, यदि उन पर देश में बहस चलती है तो भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई के मुद्दे को बल मिलेगा। इस देश मंे जाति से ज्यादा कोई और शास्वत एवं ताकतवर चीज नहीं है। मरते दम तक इंसान जाति से मुक्त नहीं हो पाता। देश छोड़कर किसी भी मुल्क में चला जाए तो जातीय भावना भी साथ जाती है। इस बयान पर तमाम तरह की टिप्पणियां आ रही हैं। कोई कह रहा है कि भ्रष्टाचार की जाति नहीं होती तो कुछ ने कहा कि इस वाक्य को पूरे संदर्भ मंे देखा जाना चाहिए। गिरतारी की भी मांग उठ रही है। जो इन्होंने बोला वह वापिस तो नहीं हो सकता लेकिन अगर भ्रष्टाचार पर उसी तरह से बहस देश में छिड़ जाए जैसे निर्भया के हत्या एवं बलात्कार के ऊपर हुआ तो कुछ मकसद हासिल हो सकता है।

     दलित-आदिवासी औरों की तुलना में तो कम से कम भ्रष्ट है और यह बहुत विश्वास के साथ कहा जा सकता है। पिछले वर्ष भारत सरकार ने 17 लोगों के नंबर 2 विदेशी खाते का नाम सहित खुलासा किया उसमें से एक भी दलित और आदिवासी नहीं है। जैन हवाला कांड मंे भी ये नहीं थे। लाखों करोड़ों धन विदेश में है। बहुत संभव है कि उसमें ये ना शामिल हो। हर्षद मेहता, केतन पारिख, तेलगी आदि घोटालोंबाजों में से कोई दलित, आदिवासी नहीं है। कॉमनवेल्थ गेम्स में लगभग 70,000 करोड़ का घोटाला था। कावेरी गैस के मामले में सरकार को 44,000 करोड़ का चुना लगा। कोल आवंटन का बंदरबांट सभी जानते हैं। जी-2 स्पेक्ट्रम लाइसेंस लेने वाले मंे कोई भी इनमें से नहीं था। मंत्री जरूर दलित समाज का था। यह कहना गलत नहीं है कि दलित, आदिवासी अगर भ्रष्ट हैं तो अपवाद स्वरूप अर्थात दाल में नमक के बराबर। पिछड़े वर्ग के लोग कुछ अधिक हो सकते हैं लेकिन आबादी के अनुसार वह भी अपवाद ही होगा। आशीष नंदी ने जो कहा अगर उस बयान को उल्टा कर दिया जाए तो वह एक स्थापित सच्चाई होगी अर्थात् सवर्ण भ्रष्ट ज्यादा होते हैं।

     जिस जाति के हाथ में हजारों वर्ष से धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक सत्ता रही है, वही तो और संस्थाओं को जन्म देता है। भ्रष्टाचार हमारे यहां एक संस्था का रूप ले चुका है। आजादी के बाद कार्यपालिका, विधायिका एवं न्यायपालिका की बागडोर ज्यादातर सवर्णों के हाथ मंे ही रही है इसलिए यह कहा जा सकता है कि भ्रष्टाचार की बुनियाद उसी समय में पड़ी। शासक वर्ग ही तमाम संस्थाओं, मान्यताओं एवं रीति-रिवाज का जन्मदाता होता है। सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार धर्म के नाम पर होता है। देवी-देवताओं को प्रसाद, पैसा, चादर, सोना-चंादी, मुर्गा एवं बकरा आदि चढ़ाकर के लाभ लेना क्या भ्रष्टाचार नहीं तो और क्या है ? निर्विवाद रूप से यह कहा जा सकता है कि भ्रष्टाचार की बुनियाद रखने का काम सवर्णों ने किया और कुछ एक दशक से दलित, आदिवासी और पिछड़े भी इस सामाजिक बुराई से प्रभावित हुए हैं। असली गुनहगार वही जाति है जिसने इस सामाजिक बुराई को जन्म दिया है। अतः आशीष नंदी अपने मंे फिर से टटोलंे कि जो उन्होंने कहा उसका विपरीत जरूर सच है। हमारे यहां के ज्यादातर बुद्धिजीवी बौद्धिक स्तर पर ईमानदार नहीं है और दूसरी तरफ समाज के सच्चाई का ज्ञान भी नहीं है। किताबी कीड़ा हो जाने से कोई बुद्धिजीवी नहीं हो जाता। यूरोप और अमेरिका से विपरीत हमारे यहां जब समाज में बदलाव आ जाता है तब बुद्धिजीवी संज्ञान लेते हैं उनमें कम ही क्षमता है कि वे अपनी लेखनी, वक्तव्य, कविता आदि से समाज को प्रभावित किए हैं। आखिर में आशीष नंदी इसी माहौल के पैदाईश हैं और उनसे कोई बड़ी उम्मीद तो की नहीं जा सकती।

     आशीष नंदी ने यह भी कहा कि बंगाल मंे भ्रष्टाचार कम है उसका श्रेय उन्होंने वामपंथी सवर्ण नेताओं को दिया। उन्होंने यह भी कहा कि 100 वर्ष में कोई दलित, आदिवासी एवं पिछड़ा नेतृत्व में नहीं है। अर्थात् आर्थिक भ्रष्टाचार कम हुआ लेकिन सामाजिक का पलड़ा ज्यादा ही भारी है। दलितों, आदिवासियों एवं पिछड़ों के लिए अच्छा होता कि वहां भी उतना ही आर्थिक भ्रष्टाचार होता जितना और स्थानों पर है बशर्ते वे इस शर्त पर शासन-प्रशासन में भागीदार होते। ऐसा इसलिए कि इस माहौल में इनकी भागीदारी सुनिश्चित होती। इस देश में भागीदारी की समस्या कहीं आर्थिक भ्रष्टाचार से बड़ी है। वामपंथी भले इसको ना माने लेकिन यह एक कटू सत्य है। वामपंथियों द्वारा इस सच्चाई से रूबरू ना होने के कारण उनका सफाया हुआ नहीं तो भारत देश जैसे उर्वरा भूमि रूस की भी नहीं थी जहां पर मार्क्सवाद पनपा। अभी तक जो आरोप वामपंथियों पर लगाया जाता रहा कि वे सबसे ज्यादा ब्राह्मणवादी हैं, वह सच है। आशीष नंदी के बयान से इस सोच को समर्थन मिला। यह कैसे संभव है कि लगभग 80 प्रतिशत दलित, आदिवासी एवं पिछड़ों की आबादी हो और उसमें से नेतृत्व ना पैदा हो। क्या मान लिया जाए कि ये मूर्ख एवं अयोग्य होते हैं। 
    जिस तरह से भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के संघर्ष पर देश में बहस छिड़ी उसी तरह से इस विषय पर देश में संवाद होना चाहिए कि कौन जाति ज्यादा भ्रष्ट है और कौन नहीं। बहस से स्पर्धा होगी और जो जातियां ज्यादा भ्रष्टाचार कर रही हैं उनके ऊपर मनोवैज्ञानिक और मानसिक दबाव पड़ेगा और इससे भ्रष्टाचार में कमी होगी। हमारे यहां शान एवं स्पर्धा से चीजें तेजी से भागती है। जिस जाति के शान पर बट्टा लगेगा वह भ्रष्टाचार से बचेगी। कुछ दिन पहले इसी मुद्दे पर एन डी तिवारी हॉल, नई दिल्ली में विचार गोष्ठी रखी गई थी। वहां पर अन्ना हजारे से मुलाकात हो गई और मैंने कहा कि विगत वर्ष की तुलना में इस वर्ष भ्रष्टाचार बढ़ा है तो उनके अनशन से क्या फायदा हुआ। उन्होंने जवाब में कहा कि भ्रष्टाचार मिटाने के लिए भारत के गांव मंे जाना होगा। मैंने कहा कि 6 लाख से ज्यादा गांव भारत मंे है तो कैसे ये संभव होगा और कितने हजार साल लगेंगे क्यूंकि उन्होंने पूरा जीवन एक गांव को सुधारने में लगा दिया। ज्यादातर लोग नकार रहे हैं कि भ्रष्टाचार की जाति नहीं होती लेकिन यह सच नहीं है। जाति अथवा हमारी सामाजिक संरचना ही झूठ पर आधारित है। ऊंच-नीच भगवान की मर्जी है, इसी मान्यता पर समाज टिका हुआ है तो क्या यह सत्य है। असत्य बात अपने आप में भ्रष्टाचार है। आर्थिक भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई तब तक सफल नहीं होगी जब तक कि बौद्धिक भ्रष्टाचार को मान्यता ना मिले और उसको मिटाने के लिए लगातार संघर्ष हो। यह बात तो तय है कि यदि जाति और भ्रष्टाचार में बहस चले तो इसके परिणाम अच्छे निकलेंगे।   

राश्ट्रीय अध्यक्ष, इंडियन जस्टिस पार्टी एवंराश्ट्रीय अध्यक्ष, इंडियन जस्टिस पार्टी एवं
रा. चेयरमैन, अनुसूचित जाति/जन जाति संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघरा. चेयरमैन, अनुसूचित जाति/जन जाति संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ
टी-22, अतुल ग्रोव रोड, कनॉट प्लेस, नई दिल्ली-110001टी-22, अतुल ग्रोव रोड, कनॉट प्लेस, नई दिल्ली-110001
फोनः 23354841.42, टेलीफैक्स: 23354843फोनः 23354841.42, टेलीफैक्स: 23354843
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