Saturday, September 22, 2012

Fwd: [New post] किसके लिए ओलंपिक



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From: Samyantar <donotreply@wordpress.com>
Date: 2012/9/20
Subject: [New post] किसके लिए ओलंपिक
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कृष्ण सिंह posted: "ओलंपिक को धरती पर खेलों के सबसे बड़े चमत्कार के तौर पर पेश किया जाता है। लंदन ओलंपिक-2012 भी इस 'चमत्कà"

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किसके लिए ओलंपिक

by कृष्ण सिंह

london-summer-olympics-2012ओलंपिक को धरती पर खेलों के सबसे बड़े चमत्कार के तौर पर पेश किया जाता है। लंदन ओलंपिक-2012 भी इस 'चमत्कार' का अपवाद नहीं है। भारी-भरकम खर्चे के साथ लंदन ओलंपिक ऐसे समय में हो रहा है जब पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था गहरे संकट में फंसी है। देशों की जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) लगातार ढलान पर है। बेरोजगारी की दर लगातार बढ़ रही है और लोगों के बीच असमानता की खाई पहले से कहीं अधिक चौड़ी हो रही है। खासकर योरोप में इस आर्थिक संकट को लेकर सबसे ज्यादा खलबली और घबराहट है।

ओलंपिक खेलों ( ग्रीष्म और शरद दोनों ही) के पिछले पचास सालों के इतिहास में लंदन ओलंपिक-2012 सबसे महंगा आयोजन है। इससे पहले 2008 में बीजिंग में जो ओलंपिक खेल हुए थे उसकी लागत कितनी थी इसका खुलासा चीनी प्रशासन ने नहीं किया। पर तथ्य यह है कि शुरू में ओलंपिक खेलों के आयोजन को लेकर जो बजट बनाया जाता है और जो लागत तय की जाती है वह अंत तक आते-आते कई सौ गुना बढ़ जाती है। ओलंपिक खेलों के साथ पिछले कई दशकों से यह समस्या लगातार बनी हुई है। लंदन ओलंपिक खेलों के आयोजन की लागत-खर्च को पहले करीब 2.4 बिलियन पाउंड माना गया था, लेकिन 2007 तक इसकी लागत बढ़कर 9.3 बिलियन पाउंड हो गई। नेशनल ऑडिट ऑफिस ने पाया कि सार्वजनिक क्षेत्र की फंडिंग करीब तीन गुना हो गई है। जबकि निजी क्षेत्र का योगदान लडख़ड़ाकर दो फीसदी से नीचे गिर गया। हाल ही में हाउस ऑफ कॉमन्स की पब्लिक एकाउंट्स कमेटी ने यह खुलासा किया कि खर्चा बढ़कर करीब ग्यारह बिलियन पाउंड की ओर जा रहा है। गेम्स मॉनिटर के ओलंपिक क्रिटिक जूलियन शायने ने इस खर्चे का अनुमान करीब 13 बिलियन पाउंड लगाया है। स्काई स्पोर्ट्स की पड़ताल में अनुमान लगाया गया है कि परिवहन व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए खर्च की गई बढ़ी हुई राशि को जोड़कर यह 24 बिलियन पाउंड तक पहुंच सकती है। पेसिफिक यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर जुल्स बॉयकॉफ ने लंदन के द गार्डियन अखबार में लिखा है, ''ओलंपिक विलेज के निर्माण ने निजी खर्चे को जनता भरे को चरितार्थ किया है। पहले जिसे लंदन के अर्बन रिजेनेरेशन प्लान-2012 का लंदन का एक बिलियन पाउंड का सेंटरपीस माना गया था, उस विलेज को आस्ट्रेलियाई डवलेपर लैंड लीड द्वारा धन मुहैया कराया जाना था। (इस समझौते में से अंतरंग मित्रता का धुंआ उठता था- डेविड हिग्गिंस, ओलंपिक डिलिवरी अथॉरिटी के फरवरी 2011 तक चीफ एक्जीक्यूटिव थे, जो कि पहले लैंड लीज का नेतृत्व कर रहे थे। ) लेकिन 2008 के आर्थिक झंझावात और ऋण के संकट के चलते निजी पूंजी ने इस प्रोजेक्ट को त्याग दिया और इसे ब्रिटिश सरकार पर छोड़ दिया। वर्ष 2009 के वसंत में ओलंपिक के मुखिया ने यह स्वीकार किया कि यह गांव (ओलंपिक विलेज) 'पूरी तरह राष्ट्रीयकृत' होगा। अर्थात इसका खर्चा करदाता उठाएंगे। ''बॉयकॉफ लिखते हैं-'' मेजबान शहर अक्सर खेलों की लागत को कम करके आंकते हैं और इसके फायदों पर अधिक बोलते हैं। लंदन कोई अपवाद नहीं है। ... हमें ओलंपिक के बाजारीकरण के संलेखों पर जरा गौर करना चाहिए। 1976 में मॉन्ट्रियल ओलंपिक गेम्स बहुत महत्त्वपूर्ण थे। जैसे लंदन 2012 में, बढ़ा-चढ़ाकर बताने वाले एक ओलंपिक से प्रेरित आर्थिक स्वर्णिम दिन का वादा कर रहे हैं। तब मॉन्ट्रियल के मेयर ने जनता के धन को इतने बड़े पैमाने पर खर्च करने को जायज ठहराया था और आलोचकों को यह कहकर आश्वस्त किया था कि - 'मॉन्ट्रियल ओलंपिक के बाद घाटा वैसा ही नहीं हो सकता जैसे एक पुरुष को बच्चा नहीं हो सकता।' वास्तव में वे खेल आर्थिक रूप से बहुत ही असफल साबित हुए और इतने बड़े सार्वजनिक घाटे को तीस साल बाद भी पूरा नहीं किया जा सका। ''हमें एथेंस-2004 के ओलंपिक खेलों को नहीं भूलना चाहिए। जो एथेंस ही नहीं पूरे ग्रीस के लिए एक दुस्वपन साबित हुए। खेलों के आयोजन की लागत के बहुत ज्यादा बढऩे और कर्ज के चलते ग्रीस का वित्तीय और आर्थिक संकट इतना ज्यादा बढ़ गया कि उसने 2008-12 के बीच के उसके आर्थिक संकट को और भी गहरे दुष्चक्र में फंसा दिया। असल में ओलंपिक खेलों को जिस तरह से अंतरराष्ट्रीय सद्भावना और खेल भावना का चरमोत्कर्ष कहा जाता है वह मात्र छलावा है। यह मंच बड़े कॉरपोरेट घरानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए एक बड़ा बाजार खोलता है, जिसकी वास्तविक खिलाड़ी ये बड़ी कंपनियां ही होती हैं। क्योंकि इसके आर्थिक लाभ की सबसे बड़ी हिस्सेदार प्रायोजन और खेलों को लेकर अन्य तरह की व्यावसायिक गतिविधियों में शामिल बड़ी कंपनियां होती हैं, न कि वे मेजबान शहर और उनकी जनता- जिसके टैक्स का पैसा इन खेलों के आयोजन पर दिल खोलकर लुटाया जाता है। इस सब ने एक बार फिर इस बहस को और तीखा कर दिया है कि ओलंपिक खेलों की आर्थिक उपयोगिता क्या है?

शायद यही कारण है कि लंदन ओलंपिक के मौके पर आज बहुत से ब्रिटेनवासी रोम के सम्राट थियोडोसियस को एक दृढ़ विचारों वाले एक बुद्धिमान व्यक्ति के रूप में याद कर रहे हैं जिसने 16 शताब्दी पहले ओलंपिक खेलों को म्लेच्छ (विधर्मी) की संज्ञा दी थी और उस पर प्रतिबंध लगा दिया था। ब्रिटेन और खासकर लंदन में बहुत सारे लोगों और मीडिया में भी इन खेलों के आर्थिक पक्ष को लेकर बहस छिड़ी हुई है। ब्रिटेन की जनता को प्रधानमंत्री डेविड कैमरन के आश्वासन पर भरोसा नहीं हो पा रहा है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने इन खेलों को ब्रिटेन के लिए सोने में बदलने का वादा किया है। जैसा कि जानी-मानी पत्रिका द इकॉनोमिस्ट ने लिखा है- ''खेलों को लेकर लोग अक्सर नाराज या गुस्साए रहते हैं, इसका एक बहुत बड़ा कारण है कि वे बहुत अधिक उम्मीद लगा लेते हैं - ओलंपिक खेल सदैव ही गलत (मिस-सोल्ड) बेचे जाते हैं। पहले तो मेजबान सरकार कहती है कि खेलों के आर्थिक लाभ उन पर हो रहे खर्च से कहीं अधिक होंगे। दूसरा, खेल लोगों को अधिक व्यायाम करने के लिए प्रेरित करेंगे। तीसरा, वे भविष्यवाणी करते हैं कि कुछ हफ्तों के लिए वैश्विक आकर्षण में रहने के अद्वितीय लाभ होंगे। पहले के दो दावे बकवास हैं, तीसरा लंदन पर फिट नहीं बैठता है।'' द इकॉनोमिस्ट पत्रिका ने यह भी लिखा - ''ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने 20 बिलियन डालर के बोनांजा का वादा किया है, लेकिन खेल अपने मेजबानों के लिए कभी-कभार ही पैसा बनाते हैं। जो फर्में कॉन्ट्रेक्ट पाने में कामयाब हो गई हैं वे खुश हैं, प्रायोजक भी खुश हैं। ओलंपिक ब्यूरोक्रेसी प्रसारणकर्ताओं से अरबों चूस लेती है। लेकिन मेजबान राष्ट्र उतना किस्मत वाला नहीं है - 1960 से ओलंपिक खेलों की लागत बेहताशा बढ़ती दिखाई दे रही है। दूसरी तरह के मेगा प्रोजेक्टों जिसमें बांध भी शामिल हैं, के मुकाबले इनमें औसत अनुमान से अधिक खर्च बहुत ही खतरनाक स्तर तक है।'' एक तथ्य यह भी है कि खेलों से संबंधित अक्सर जो लागत और खर्च बताया जाता है उसमें उस सार्वजनिक और निजी निवेश का जानबूझकर जिक्र नहीं किया जाता है जो रेल, रोड, एयरपोर्ट जैसी ढांचागत सुविधाएं, होटलों का नवीनीकरण आदि पर बड़े पैमाने पर खर्च होता है। लाभों का आकलन करने वाले एक गुलाबी तस्वीर पेश करते हैं और वे इन अतिरिक्त लागतों को जानबूझकर अनदेखा कर देते हैं। इन अतिरिक्त बड़े खर्चों में एक अच्छा-खासा हिस्सा सुरक्षा पर होने वाला खर्च भी शामिल है जिसका भार आयकरदाता वहन करते हैं। लंदन ओलंपिक में करीब 50 हजार सुरक्षाकर्मियों ( जिसमें सेना और पुलिस के जवान तथा निजी एजेंसियों से मंगाए गए सुरक्षागार्ड शामिल हैं)। को तैनात किया गया है। इसे ब्रिटेन में पिछले पचास सालों में सुरक्षा बलों का सबसे बड़ा जमावड़ा कहा जा रहा है। 13, 500 सैन्यकर्मी पेट्रोलिंग पर हैं, जबकि अफगानिस्तान में जो ब्रिटिश सैनिक हैं उनकी संख्या इस समय चार हजार है। इतना ही नहीं ब्रिटिश नौसेना का सबसे बड़ा जहाज एचएमएस ओसियन खेलों की सुरक्षा का हिस्सा है। सुपरसोनिक टायफून जेट विमानों के अलावा पूर्वी लंदन में छतों पर एंटी एयरक्राफ्टगन तैनात की गई हैं। इतना ही नहीं, जब एक निजी फर्म ने 10, 400 सुरक्षाकर्मियों के बदले केवल चार हजार ही सुरक्षाकर्मी देने की बात कही तो आयोजकों ने अफगानिस्तान से लौटे ब्रिटिश सैनिकों को पूर्वी लंदन के ओलंपिक स्टेडियम की सुरक्षा में तैनात कर सुरक्षाकर्मियों की इस कमी को पूरा किया।

इस सब के बीच 27 जुलाई को लंदन ओलंपिक के शुरू होने से ठीक दो दिन पहले ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था के लिए एक और बुरी खबर आई। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने 25 जुलाई को जो आंकड़े जारी किए उसके अनुसार जीडीपी की दर इस साल की दूसरी तिमाही में पहली तिमाही के मुकाबले 0.7 फीसदी गिर गई है। हालांकि सरकारी भविष्यवाणीकर्ता ओलंपिक खेलों से होने वाले आर्थिक लाभ को लेकर आशान्वित हैं। लेकिन जो आर्थिक परिदृश्य है वह गुलाबी तस्वीर दिखाने के बजाय भविष्य के लिए इन खेलों से एक निराशाजनक तस्वीर के उभरने की ओर साफ संकेत कर रहा है। बैंक ऑफ इंग्लैंड ने भविष्यवाणी की है कि खेल तीसरी तिमाही में जीडीपी को 0.2 फीसदी की दर से बढ़ावा दे सकते हैं। पर वास्तविकता यह है कि अभी तक ओलंपिक गेम्स के जो 8.8 मिलियन टिकट बिके हैं वे जीडीपी का करीब 0.1 प्रतिशत होते हैं। जिन्हें तीसरी तिमाही में गिना जाएगा। हालांकि इनका अधिकतर भुगतान वर्ष 2011 में ही हो गया है। जहां तक पर्यटकों की संख्या में अच्छा-खासा इजाफा होने की जो बात कही जा रही है तो ओलंपिक खेलों के दौरान अक्सर यही देखा गया है जो आम पर्यटक होता है वह जिस देश में ओलंपिक खेल हो रहे होते हैं वहां जाने की अपनी योजना को टाल देता है। योरोपियन टूर ऑपरेटर्स एसोसिएशन के अनुसार अन्य पर्यटकों के मुकाबले खेल प्रेमियों की आवाजाही बहुत ही कम समय के लिए होती है। ऑनलाइन बुकिंग सर्विस होटल्स डॉटकॉम के निगेल पोकलिंगटन ने द इकॉनोमिस्ट से कहा कि खेलों के दौरान लंदन में कमरों की मांग की जितनी अपेक्षा की जा रही थी उससे कम है। पिछले चार हफ्तों के दौरान इसके दामों में भी 25 फीसदी की गिरावट आई है। जैसा कि इस समय ब्रिटेन में अर्थव्यवस्था का हाल है, जो कि जीरो ग्रोथ के करीब है, उसमें ये खेल कोई बड़ा अंतर ला देंगे ऐसा दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता है। लंदन ओलंपिक भी मेजबान शहर और देश के लिए आर्थिक लिहाज से अपने पूर्ववर्ती बहुत सारे ओलंपिक खेलों की तरह असफल ही साबित होंगे।

डाउ केमिकल्स और जंक फूड कंपनियां

Bearman-Editorial-Cartoon-Olympic-Sponsorshipsइन खेलों को बढ़ावा देने वाली और ये खेल कहां होंगे यह फैसला करने वाली अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक कमेटी (आईओसी) ने इन खेलों को व्यावसायीकरण और बाजारीकरण की इस हद तक पहुंचा दिया है कि उसके लिए प्रायोजक कंपनियों का संदिग्ध इतिहास और चरित्र भी कोई मायने नहीं रखता है। इसका ताजा उदाहरण लंदन ओलंपिक हैं। 2012 के इन खेलों के लिए डाउ केमिकल्स विश्वस्तर पर ओलंपिक साझीदार है। यह डाउ केमिकल्स वही बहुराष्ट्रीय कंपनी है जिसने 1999 में कुख्यात यूनियन कार्बाइड का अपने में विलय किया था। यूनियन कार्बाइड भोपाल में हुए गैस रिसाव और उसके कारण हुए नरसंहार के लिए जिम्मेदार है। इसके अलावा लंदन ओलंपिक में कोका-कोला, मैकडोनाल्ड और केडबरी को अपने जंक फूड ब्रांडों और उत्पादों को प्रमोट करने के लिए एक 'अनुपम प्लेटफार्म' मुहैया कराया गया है। जंक फूड स्वास्थ्य के लिए कितने हानिकारक हैं यह वैज्ञानिक शोधों ने कई बार साबित किया है। खेल एक अच्छे स्वास्थ्य के निर्माण के लिए प्रेरित करते हैं, लेकिन ओलंपिक का यह मंच ऐसी कंपनियों के लिए खोला गया है जिनके उत्पाद बच्चों और उनके भविष्य पर प्रतिकूल असर डालते हैं। इन कंपनियों को जिस तरह से इतने बड़े स्तर पर अपने उत्पादों के प्रमोशन का मौका दिया गया है उसकी ब्रिटेन में काफी आलोचना हो रही है। क्योंकि ये जंक फूड कंपनियां आईओसी की आय में केवल करीब दो फीसदी का योगदान देती हैं, जबकि इसके बदले इन्हें इतना बड़ा वैश्विक प्लेटफार्म दिया गया है। असल में ओलंपिक एक बड़ा वैश्विक समारोह है और जंक फूड कंपनियों, जो खेलों को प्रायोजित करती हैं, के लिए इसका मतलब होता है बड़े रेस्टोरेंट, बड़ा दर्शक वर्ग, बड़ी ब्रांड वैल्यू, बहुत बड़ा मुनाफा, लेकिन बच्चों के लिए इसका अर्थ होता है जीवन के बाद के दिनों में बढ़ी हुई तोंद और बड़ी स्वास्थ्य समस्या।

राष्ट्रीय गर्व या राष्ट्रवाद के उन्माद का प्रमोशन

इन खेलों के जरिए राष्ट्रीय गर्व की बात की जाती है। क्या सचमुच ऐसा है? अगर हम ओलंपिक के इतिहास पर नजर डालें तो यह उन बड़े और शक्तिशाली राष्ट्रों के लिए अपने अंध राष्ट्रवाद के उन्माद को बढ़ाने वाला ही नजर आता है। वर्ष 1936 के बर्लिन ओलंपिक खेलों का इस्तेमाल नाजी जर्मनी ने आर्य श्रेष्ठता को प्रदर्शित करने के लिए किया। उसने नेशनलिस्ट सोशलिस्ट पार्टी को शांति प्रिय और परोपकारी पार्टी के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की। ओलंपिक खेलों का इस्तेमाल राजनीतिक विचारधारा को प्रचारित करने के लिए भी किया जाता रहा है। शीतयुद्ध के दिनों में यह मंच खेल भावना से ज्यादा राष्ट्रवादी उन्माद को प्रदर्शित करने वाला मंच साबित हुआ। अमेरिका और सोवियत संघ में इन खेलों में मेडलों की होड़ खेल भावना से ज्यादा अपनी ताकत और दंभ का प्रदर्शन और एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए ज्यादा रही है। वर्ष 1980 के मास्को ओलंपिक का अमेरिका ने बहिष्कार किया था। तत्कालीन राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने इसके बहिष्कार की घोषणा इसलिए की कि सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर आक्रमण किया था। करीब 62 देशों ने इसमें हिस्सा नहीं लिया। हालांकि इनमें कुछ देश ऐसे भी थे जिन्होंने अपनी खराब वित्तीय हालात के कारण मास्को ओलंपिक में भागीदारी नहीं की। लेकिन बहिष्कार करने वाले ज्यादातार देश अमेरिका समर्थक थे। इसके बाद वर्ष 1984 में लॉस एंजेल्स में हुए ओलंपिक खेलों का सोवियत संघ और उसके 14 मित्र देशों ने बहिष्कार किया। हालांकि इसके पीछे सुरक्षा का कारण बताया गया लेकिन वास्तव में यह अमेरिका के 1980 के कदम का जवाब था। आज चीन और अमेरिका के बीच भी इन खेलों के जरिए वैसी ही होड़ है जैसी शीतयुद्ध के समय सोवियत संघ और अमेरिका में थी।

ड्रग्स की चासनी में डूबी खेल भावना

ओलंपिक खेलों को खेल भावना का चरम कहा जाता है। इसे ऐसा मंच कहा जाता है जहां खिलाड़ी अपने शरीर और दिमाग की बाह्य सीमाओं की चरम खोज तक जा पहुंचते हैं। लेकिन यह खोज अक्सर ऐसी साबित होती है जहां खिलाड़ी अकल्पनीय प्रदर्शन की होड़ में अपने शरीर की सीमाओं से परे जाने के लिए ड्रग्स का सहारा लेते हैं। ओलंपिक खेलों का इसका लंबा इतिहास रहा है। इसके जड़ें प्राचीन ओलंपिक तक में मिल जाती हैं। जहां खिलाड़ी, खासतौर से धावक, विशेष तरीके से बनाए गए गिरगिट-छिपकली का मांस खाते थे ताकि यह प्रदर्शन में उन्हें जबरदस्त बढ़त दिला सके। आधुनिक समय में 1904 में ड्रग्स के इस्तेमाल की पहली घटना सामने आई थी। उस मैराथन के विजेता थोम्स हिक्स ने अपने प्रदर्शन को बेहतर करने के लिए ड्रग्स का इस्तेमाल किया था। हालांकि अब ओलंपिक खेलों में ड्रग्स के सेवन पर प्रतिबंध है, लेकिन अभी भी ड्रग्स के इस्तेमाल की बहुत सारी घटनाएं सामने आती रहती हैं। सबसे चर्चित उदाहरण 1988 के सियोल ओलंपिक का है। इस ओलंपिक में सौ मीटर की दौड़ कनाडा के धावक बैन जॉनसन ने जीती थी। डोप टेस्ट में पाया गया कि जॉनसन ने ड्रग्स का इस्तेमाल किया था। इसके कारण उन्हें गोल्ड मेडल के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया और यह मेडल दूसरे स्थान पर रहे कार्ल लुइस को दिया गया। जिन्होंने खुद ओलंपिक से पहले प्रतिबंधित दवा का इस्तेमाल किया था।

कुल मिलाकर ओलंपिक खेलों के जरिए जिस वैश्विक सद्भावना और उत्कृष्ट खेल भावना का ढिंढोरा पीटा जाता है वह कॉरपोरेट लूट और आईओसी के बढ़ते खजाने का मंच बन कर रह गया है। जिसमें खेल भावना और अंतरराष्ट्रीय बंधुत्व का नारा कहीं बहुत पीछे छूट गया है।

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