Tuesday, August 14, 2012

वह गाँधी के पीछे-पीछे गया कुछ दूर - बोधिसत्व

वह गाँधी के पीछे-पीछे गया कुछ दूर - बोधिसत्व

एक आदमी मुझे मिला भदोही में,
वह टायर की चप्पल पहने था। 
वह ढाका से आया था छिपता-छिपाता,
कुछ दिनों रहा वह हावड़ा में 
एक चटकल में जूट पहचानने का काम करता रहा 
वहाँ से छटनी के बाद वह
गया सूरत
वहाँ फेरी लगा कर बेचता रहा साड़ियाँ 
वहाँ भी ठिकाना नहीं लगा
तब आया वह भदोही
टायर की चप्पल पहनकर 

इस बीच उसे बुलाने के लिए
आयी चिट्ठियाँ, कितनी
बार आये ताराशंकर बनर्जी, नन्दलाल बोस
रवीन्द्रनाथ ठाकुर, नज़रूल इस्लाम और 
मुज़ीबुर्रहमान।

सबने उसे मनाया, 
कहा, लौट चलो ढाका
लौट चलो मुर्शिदाबाद, बोलपुर
वीरभूम कहीं भी।

उसके पास एक चश्मा था, 
जिसे उसने ढाका की सड़क से 
किसी ईरानी महिला से ख़रीदा था, 
उसके पास एक लालटेन थी
जिसका रंग पता नहीं चलता था
उसका प्रकाश काफ़ी मटमैला होता था, 
उसका शीशा टूटा था, 
वहाँ काग़ज़ लगाता था वह
जलाते समय।

वह आदमी भदोही में, 
खिलाता रहा कालीनों में फूल 
दिन और रात की परवाह किये बिना।

जब बूढ़ी हुई आँखें
छूट गयी गुल-तराशी,
तब भी,
आती रहीं चिट्ठियाँ, उसे बुलाने
तब भी आये
शक्ति चट्टोपाध्याय, सत्यजित राय 
आये दुबारा
लकवाग्रस्त नज़रूल उसे मनाने
लौट चलो वहीं....
वहाँ तुम्हारी ज़रूरत है अभी भी...।

उसने हाल पूछा नज़रूल का 
उन्हें दिये पैसे, 
आने-जाने का भाड़ा,
एक दरी, थोड़ा-सा ऊन,
विदा कर नज़रूल को 
भदोही के पुराने बाज़ार में
बैठ कर हिलाता रहा सिर।

फिर आनी बन्दी हो गयीं चिट्ठियाँ जैसे 
जो आती थीं उन्हें पढ़ने वाला 
भदोही में न था कोई।
भदोही में 
मिली वह ईरानी महिला
अपने चश्मों का बक्सा लिये

भदोही में 
उसे मिलने आये 
जिन्ना, गाँधी की पीठ पर चढ़ कर 
साथ में थे मुज़ीबुर्रहमान,
जूट का बोरा पहने।

सब जल्दी में थे
जिन्ना को जाना था कहीं
मुज़ीबुर्रहमान सोने के लिए 
कोई छाया खोज रहे थे।
वे सोये उसकी मड़ई में...रातभर,
सुबह उनकी मइयत में
वह रो तक नहीं पाया।

गाँधी जा रहे थे नोआखाली 
रात में, 
उसने अपनी लालटेन और 
चश्मा उन्हें दे दिया,
चलने के पहले वह जल्दी में 
पोंछ नहीं पाया 
लालटेन का शीशा 
ठीक नहीं कर पाया बत्ती, 
इसका भी ध्यान नहीं रहा कि
उसमें तेल है कि नहीं।

वह पूछना भूल गया गाँधी से कि
उन्हें चश्मा लगाने के बाद 
दिख रहा है कि नहीं ।
वह परेशान होकर खोजता रहा
ईरानी महिला को 
गाँधी को दिलाने के लिए चश्मा 
ठीक नम्बर का

वह गाँधी के पीछे-पीछे गया कुछ दूर 
रात के उस अन्धकार में 
उसे दिख नहीं रहा था कुछ गाँधी के सिवा।

उसकी लालटेन लेकर 
गाँधी गये बहुत तेज़ चाल से 
वह हाँफता हुआ दौड़ता रहा
कुछ दूर तक 
गाँधी के पीछे,
पर गाँधी निकल गये आगे 
वह लौट आया भदोही 
अपनी मड़ई तक...
जो जल चुकी थी 
गाँधी के जाने के बाद ही।

वही जली हुई मड़ई के पूरब खड़ा था
टायर की चप्पल पहनकर 
भदोही में 
गाँधी की राह देखता।

गाँधी पता नहीं किस रास्ते 
निकल गये नोआखाली से दिल्ली
उसने गाँधी की फ़ोटो देखी 
उसने गाँधी का रोना सुना, 
गाँधी का इन्तजार करते मर गयी 
वह ईरानी महिला 
भदोही के बुनकरों के साथ ही।
उसके चश्मों का बक्सा भदोही के बड़े तालाब के किनारे 
मिला, बिखरा उसे, 
जिसमें गाँधी की फ़ोटो थी जली हुई...।

फिर उसने सुना 
बीमार नज़रूल भीख माँग कर मरे 
ढाका के आस-पास कहीं,
उसने सुना रवीन्द्र बाउल गा कर अपना 
पेट जिला रहे हैं वीरभूमि-में 
उसने सुना, लाखों लोग मरे 
बंगाल में अकाल, 
उसने पूरब की एक-एक झनक सुनी।

एक आदमी मुझे मिला 
भदोही में 
वह टायर की चप्पल पहने था
उसे कुछ दिख नहीं रहा था
उसे चोट लगी थी बहुत
वह चल नहीं पा रहा था। 
उसके घाँवों पर ऊन के रेशे चिपके थे
जबकि गुल-तराशी छोड़े बीत गये थे
बहुत दिन !
बहुत दिन !
- Bodhi Sattva

No comments:

Post a Comment