Wednesday, July 4, 2012

घरेलू वस्तुओं का दाम बढ़ाने का अर्थशास्त्र

घरेलू वस्तुओं का दाम बढ़ाने का अर्थशास्त्र

http://www.janjwar.com/2011-05-27-09-00-20/29-economic/2824-gharelu-vastuon-ka-daam-badhane-ka-arthshashtra


दो दशकों में बना भारी मुनाफे का श्रोत

मारुति 800 के दाम में पिछले 20 सालों में हुई वृद्धि तथा इस दौरान आटा-दाल की कीमतों में हुई वृद्धि की तुलना पाठक स्वयं कर सकते हैं. भूमंडलीकरण की नीतियों की वजह से आरामदायक और विलासिता की वस्तुओं की कीमतें कमोबेश स्थिर रखने में कंपनियां सफल रही हैं, जबकि आवश्यक वस्तुओं की कीमतों को बाज़ार की गिरफ्त मे छोड़ दिया गया है...

अश्विनी कुमार

एक तरफ जहाँ खाद्य पदार्थों की कीमतों में आग लगी हुई हो तो उसी आग में घी डालने का काम तब होता है, जब सरकार द्वारा खरीदे गये अनाज को सरकारी खाद्य एजेंसियां खुले में सडऩे के लिए छोड़ दें . राष्ट्रमंडल जैसे 'राष्ट्रीय गरिमा' के आयोजनों एवं तथाकथित राष्ट्रोद्धार करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए रेड कारपेट बिछाने में व्यस्त हमारी 'जन कल्याणकारी' सरकार को उस सड़ते अनाज की सुध लेने की फुर्सत भी ना हो . हद तो तब होती है जब सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद भी सरकार पूरी अडिगता के साथ कह दे कि अनाज खुले में सड़ते हों तो सड़ें, इसे सस्ते दामों पर गरीबों को उपलब्ध नहीं कराया जा सकता.

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अब खाद्य सुरक्षा बिल का शिगूफा छोड़ा गया है, जिसके तहत गरीबों को सस्ता अनाज उपलब्ध कराने की वकालत राष्ट्रीय विकास परिषद् की अध्यक्षा सोनिया गाँधी कर रही हैं, वहीं खाद्य मंत्री उसका विरोध कर रहे हैं. लेकिन खाद्य पदार्थों की कीमतें बढ़ी ही क्यों, इसकी कोई चर्चा नहीं हो रही है. खाद्य पदार्थों की उत्पादन-लागत कैसे कम हो सकती है, इस पर भी कहीं कोई विचार नहीं हुआ. बहरहाल, खाद्य सुरक्षा को किसानों की जीवन-सुरक्षा से जोड़ा जायेगा या आम गरीब जनता को इसके तहत सड़ा हुआ अनाज मिलेगा, यह प्रश्न अभी शेष है. वैसे भी अच्छी गुणवत्ता वाला अनाज तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के गोदामों में जमा है जो मेहनतकश गरीबों के लिए नहीं, चंद अमीरों के लिए है.

कुछ साल पहले यह खबर सुर्खियों में थी कि दुनिया के कुछ अति विकसित देश अपना लाखों टन अनाज समुद्र में बहा देते हैं. आजकल खाद्य फसलों की अपेक्षा बायो-डीजल उत्पन्न करने वाली फसलों के उत्पादन पर जोर दिया जा रहा है और खाद्य वस्तुओं की बढ़ती कीमतों का ठीकरा दक्षिण एशिया के देशों पर फोड़ा जा रहा है. कहा जा रहा है कि दक्षिण एशिया के लोगों ने आय बढऩे पर अधिक खाना शुरू कर दिया, इसलिए दुनिया में अनाज की कमी हो गई है. यह पुर्णतः बेतुकी बात हैं क्योकि दक्षिण एशिया में प्रति व्यक्ति अनाजों एवं दालों की खपत काम हुई है ना की बढ़ी है .

जब से भारत सरकार ने 'कल्याणकारी' होने का चोला बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में उतार फेंका है, तब से अति जरूरी पदार्थों और सेवाओं, जैसे आटा-दाल, डीजल-पेट्रोल, शिक्षा-स्वास्थ्य आदि के दाम लगातार बढ़ रहे हैं जबकि आरामदायक यानी विलासिता की वस्तुओं जैसे टेलीविज़न, फ्रिज, एसी, कार आदि के दामों में कोई विशेष बदलाव नहीं हुआ है.

मारुति 800 के दाम में पिछले 20 सालों में हुई वृद्धि तथा इस दौरान आटा-दाल की कीमत में हुई वृद्धि की तुलना कर पाठक स्वयं पता कर सकते हैं कि किसमें कितना परिवर्तन हुआ है. इसी तरह अन्य वस्तुओं की कीमतों की तुलना भी की जा सकती है. सरकार की भूमंडलीकरण और उदारीकरण की नीतियों की वजह से आरामदायक और विलासिता की वस्तुओं की कीमतें कमोबेश स्थिर रखने में कंपनियां सफल रही हैं, जबकि जीने के लिए अति आवश्यक वस्तुओं की कीमतों को बाज़ार की शक्तियों की गिरफ्त मे छोड़ दिया गया है.

कृषि क्षेत्र से तो सरकार ने पूरी तरह मुंह मोड़ लिया है. फलस्वरूप पिछली तीन योजनाओं में कृषि क्षेत्र में वृद्धि दर कम है तथा कृषि-उत्पादन में लागत बढ़ती जा रही है. सरकार किसानों को कोई प्रोत्साहन भी प्रदान नहीं कर रही. असल मुद्दा अब कृषि उत्पादों की सट्टेबाजी हो गयी है जिसका फायदा सिर्फ पूंजीपतियों को हो रहा है.

कृषि क्षेत्र के प्रति सरकार के उदासीन रवैये का सबसे अच्छा उदाहरण 2011-12 का बजट है, जिसमें वित्त मंत्री ने सिंचाई के क्षेत्र के विस्तार के लिए कोई विशेष कदम नहीं उठाया जबकि देश का 60 फीसदी कृषि क्षेत्र अभी भी सिंचाई सुविधा से वंचित है. वित्त मंत्री ने तो यहां तक कह दिया कि किसानों को अब इंद्रदेव की आराधना करनी चाहिए.

कर्ज में डूबा हुआ किसान अपने उत्पाद यानी खाद्य पदार्थों को औने-पौने दामों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बेचने पर मजबूर है. किसानों को इतनी भी आय नहीं हो पाती कि वे अपनी लागत की भरपायी भी कर पायें. किसान कर्ज के जाल में फंस कर लगातार आत्महत्या कर रहे हैं और सरकार को फिक्र है तो सिर्फ बहुराष्ट्रीय निगमों की. सरकार की सोच है कि कहीं निवेश-प्रोत्साहन नहीं मिलने पर वे देश छोड़ कर चलें न जायें. किसानों से औने-पौने दामों पर खरीदे गये अनाज की कीमतें देशी-विदेशी पूंजीपतियों के हाथ लगते ऐसे बढ़ती हैं जैसे मोटर गाड़ी गांवों के ऊबड़-खाबड़ रास्तों से निकल कर शहर की सडक़ों पर सरपट दौड़ती है. 

  • आज विश्व अर्थव्यवस्था पर अल्पतांत्रिक पूंजीवाद का नियंत्रण है और इस व्यवस्था में प्रतियोगिता के स्थान पर पूंजीवादी व्यवस्था के समग्र लाभ को बढ़ाने के लिए काम हो रहा है 80 प्रतिशत विश्व अर्थव्यवस्था पर मात्र 200 बहुराष्ट्रीय कंपनियों का नियंत्रण है .
  • ये बहुराष्ट्रीय कंपनियां अल्पविकसित और विकासशील देशों की सरकारों के साथ सांठगांठ कर वहां की सरकारी नीतियों को अपने अनुकूल ढालती हैं. इन कंपनियों को विश्व व्यापार संगठन, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष एवं विश्व बैंक का संरक्षण प्राप्त है. 
  • अपने वर्चस्व का इस्तेमाल वे संसाधनों को जरूरी  से गैर जरूरी पदार्थो के उत्पादन में झोक रही है और समाज में उन पदार्थो के अनुकूल संस्कृति  भी पैदा कर रही है.

कभी दूध, कभी दाल, कभी प्याज...हर खाद्य पदार्थ को कभी सड़ाने, कभी निर्यात के बहाने और कृषि उत्पाद को उचित प्रोत्साहन प्रदान न कर उनका कृत्रिम अभाव पैदा किया जाता है. फिर बाज़ार की बेलगाम शक्तियां आम जनता को बढ़ी कीमतों के माध्यम से जम कर लूटती हैं. तेल कंपनियों को पेट्रोलियम पदार्थों का मूल्य हर छ: महीने पर बढ़ाने की इजाजत देना सरकार अपना नैतिक दायित्व समझती है. जब से खाद्य पदार्थों के व्यवसाय में आइटीसी और रिलायंस जैसी दैत्याकार कंपनियां आई हैं और फ्यूचर टे्रडिंग के नाम पर खाद्य पदार्थों की सट्टेबाजी को खुली छूट मिली है, लाखों टन खाद्य पदार्थ किस सुरसा के मुंह में समा जाते हैं, पता भी नहीं चलता. साथ ही, अनाज को सस्ते में निर्यात तथा महंगा होने पर आयात जैसे शातिराना कदम उठाये जाते हैं जिसमें मंत्री स्तर पर जम कर कमीशनखोरी की जाती है.

जरूरी खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों के लिए न तो दक्षिण एशिया के गरीब लोगों की बढ़ती हुई आय जि़म्मेवार है और न ही संसाधनों की कमी. हां, संसाधनों का अन्यायपूर्ण असमान आवंटन जरूर जि़म्मेदार है. जरूरी खाद्य पदार्थों की बढ़ती हुई कीमतों का असली कारण बड़े-बड़े देशी-विदेशी पूंजीपतियों की आय एवं मुनाफा अधिकाधिक करने के साथ ही अर्थव्यवस्था पर एकाधिकार स्थापित करने की बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नीति है. महंगाई इसी वर्ग की पाली-पोसी हुई डायन है.

सतही तौर पर भले ही पूंजीवादी अर्थव्यवस्था प्रतियोगिता के सिद्धांत पर कार्य करती दिखाई पड़ती हो, पर गहराई में उतरने पर हकीकत कुछ और ही नज़र आती है. प्रतियोगिता का सिद्धांत तो सिर्फ छोटे व्यापारियों पर ही लागू होता है, जिन्हें बड़े देशी-विदेशी पूंजीपतियों अर्थात् बड़े दैत्याकारी बहुराष्ट्रीय कंपनियों से मुकाबला करना पड़ता है. मतलब स्पष्ट है कि एक दुबले-पतले कमजोर आदमी का मुकाबला सूमो पहलवान से हो! इन बड़े देशी-विदेशी पूंजीपतियों अर्थात् बहुराष्ट्रीय निगमों का सशक्त एवं संगठित 'कार्टेल' है जिनकी सीधी पहुंच वल्र्ड बैंक और आईएमएफ तक है. अपने धन बल एवं एकाधिकारी शक्ति के जोर पर ये भारत जैसे देशों की सरकारों को अपने वश में रखती हैं. इन कंपनियों के बजट में भी मंत्रियों एवं उच्चाधिकारियों को प्रभावित करने के लिए विशेष प्रावधान रहता है.

विश्व अर्थव्यवस्था में उभरी अल्पतंत्रात्मक पूंजीवाद की प्रवृत्ति ने 1950 के बाद एक संगठित 'कार्टेल' का रूप धारण कर लिया और इसने दुनिया के बाज़ारों में वस्तुओं की कीमत का निर्धारण करना शुरू कर दिया. इनके वर्चस्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि विश्व अर्थव्यवस्था के 80 प्रतिशत हिस्से पर प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष तौर पर महज़ 200 बहुराष्ट्रीय निगमों का नियंत्रण है. सिर्फ 200 बहुराष्ट्रीय निगम प्रत्यक्ष तौर पर 7.1 ट्रिलियन डॉलर के उत्पादन को नियंत्रित करते हैं जो दुनिया की शीर्ष नौ देशों की अर्थव्यवस्थाओं को छोड़ कर शेष 182 देशों के कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 6.9 ट्रिलियन डॉलर से भी अधिक है.

ये आंकड़े 1998 के हैं, अब तो स्थिति और भी भयावह हो चुकी है. अल्पतंत्रात्मक पूंजीवाद की इस प्रवृत्ति ने 1980 के दशक के आरंभ से ही उदारीकरण की नीतियों के रूप में भारत में अपने पांव पसारना शुरू कर दिया था. आज देशी औद्योगिक घरानों तथा नये उभरते उच्च मध्यम वर्ग का हित भी इन बहुराष्ट्रीय निगमों से जुड़ गया है, पर पिस तो रही है देश की 85 प्रतिशत आबादी जिसके हाथ से रोजगार के अवसर छिनते ही चले जा रहे हैं, उसे महंगाई की भी जबरदस्त मार झेलनी पड़ रही है. कृषि क्षेत्र की विकास दर भी लगातार कम होती जा रही है. सिर्फ कृषि ही नही, कृषि के बाद सर्वाधिक रोजगार जुटाने वाली कुटीर एवं लघु औद्योगिक इकाइयां भी इस मार से दम तोड़ती जा रही हैं. इस विश्लेषण से इतना तो स्पष्ट है कि विश्व और देशी, दोनों बाज़ारों पर चंद पूंजीपतियों का राज है.

mahangai-bankअब प्रश्न उठता है कि संगठित कार्टेल का फायदा जरूरी पदाथों की कीमतों को बढ़ाने तथा गैरजरूरी पदार्थों की कीमतों को कम अथवा स्थिर रखने में कैसे है. पूंजीवादी व्यवस्था में वस्तु एवं सेवाओं की कीमत मांग एवं पूर्ति की शक्तियों द्वारा तय की जाती है. पूर्ति पर जहां पूंजीपतियों का नियंत्रण होता है, वहीं मांग उपभोक्ता की क्रय-शक्ति पर निर्भर करती है. यदि उपभोक्ता अपनी मांग को नियंत्रित करने की क्षमता रखता है तो कीमत बढ़ा कर आय में वृद्धि करने की नीति बेकार साबित हो जायेगी.

उत्पादक कीमत बढ़ा कर आय में वृद्धि करने की नीति तभी अपनायेगा जब वह आश्वस्त हो जाये कि कीमत बढ़ाने के बावजूद मांग में कमी नहीं होगी. ऐसा सिर्फ अति आवश्यक वस्तुओं के साथ ही हो सकता है. अगर उत्पादक आरामदायक व विलासिता की वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि करता है तो उनकी मांग में भारी कमी हो सकती है. पर खाद्य पदार्थों, ईंधन, दवाई जैसी वस्तुओं और चिकित्सा, शिक्षा जैसी सेवाओं की कीमत बढ़ाने के बावजूद इनकी मांग में विशेष कमी नहीं आयेगी. इससे उत्पादक की आय बढ़ेगी और उसे अधिक मुनाफा होगा. एक उपभोक्ता आटे की कीमत बढऩे पर भी उसे खरीदने को मजबूर होगा, पर शीतल पेय के साथ यह बात नहीं है.

पूंजीपति मुनाफा में वृद्धि के लिए आटे की कीमत तो बढ़ाना चाहेगा, पर शीतल पेय की नहीं. शीतल पेय के मामले में वह प्रचार की नीति अपनायेगा ताकि उपभोक्ता प्रचार से प्रभावित हो कर उस वस्तु को कुछ बढ़ी हुई कीमत पर भी खरीदने को तैयार हो जाये. अब समझ में आ सकता है कि क्रिकेटरों और फ़िल्म स्टारों पर पेप्सी और कोका कोला जैसी कंपनियां अरबों रुपया क्यों फूंकती है. आज इन बड़ी कंपनियों ने बड़े पैमाने पर प्रचार को साधन बना कर छोटे-मोटे उत्पादकों के इस क्षेत्र में प्रवेश की संभावना ही खत्म कर दी है.

अभी हाल ही में सरकार ने बहुब्रांड-रिटेल के क्षेत्र में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की छुट दी थी वो बात छोटे व्यापारिक वर्ग , राज्यों में होने वाले चुनावों के मध्य नज़र इसे फिलहाल वापस ले लिया है . पर निकट भविष्य में ये फैसला वापस लिया जा सकता . सरकार का तर्क है कि इससे कीमतें कम होंगी. हाँ ! शरुआत में छोटे व्यापारियों को बाज़ार से धकेलने के लिए कीमतें कम भी हो जायें तो भविष्य में तो कंपनियों का एक छत्र राज होगा.

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अर्थशास्त्र के शिक्षक अश्विनी कुमार आर्थिक-सामाजिक विश्लेषण में रूझान रखते हैं.

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