Wednesday, June 20, 2012

Fwd: [New post] दिल्ली मेल : शीतयुद्ध के पुराने हथियार, नये प्रहार



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Date: 2012/6/21
Subject: [New post] दिल्ली मेल : शीतयुद्ध के पुराने हथियार, नये प्रहार
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दिल्ली मेल : शीतयुद्ध के पुराने हथियार, नये प्रहार

by दरबारी लाल

om-thanviपिछले पांच सप्ताह से जनसत्ता ने ऐसी बहस चला रखी है, जिसके लिए एब्सर्ड (बेहूदी, इसलिए नहीं कह सकते क्योंकि हिंदी में बेहतर पर्यायवाची सूझ नहीं रहा है) सबसे उपयुक्त शब्द है। इसे जनसत्ता की सीमा कहें या हिंदी का दुर्भाग्य कि जब देश में राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर इतनी जबर्दस्त हलचल हो और अखबार का संपादक या तो इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ रहा होता है या साहित्य के। क्या आपने इस संपादक को कभी किसी राजनीतिक विषय पर लिखते देखा है? अगर वह सामयिक होता है तो भी कुल मिलाकर साहित्यकारों की आवाजाही से आगे नहीं बढ़ पाता वरना तो आप जानते ही हैं कि वह 'मुअनजोदड़ो' पहुंच जाता है। इस पर हमें नवक्लासिकी अंग्रेजी कवि एलेक्जेंडर पोप की याद आ रही है जिन्होंने जुल्फों पर हुए एक विवाद पर 'रेप ऑफ द लॉक' नाम की लंबी कविता लिख मारी थी। वह कविता और कवि अंग्रेजी साहित्य के इतिहास में साहित्य के क्षुद्रताओं में फंस जाने के उदाहरण के तौर पर याद किया जाता है।

इस एब्सर्डिटी का सबसे बड़ा कारण यह है कि यह पूरा लेख इंटरनेट के उन गैरजिम्मेदाराना और अधिकांशत: संदेहास्पद स्रोतों पर आधारित है जिनके चलानेवालों में से अधिकांश की विश्वसनीयता ही शंकास्पद है। यह अचानक नहीं है कि वे अराजकता व उच्छृंखलता के माहिर हैं। पर इससे क्या! ओम थानवी तो अपने लेख की शुरुआत ही इंटरनेट की आरती के साथ करते हैं। सवाल है क्या यह संजाली-प्रेम यों ही उमड़ पड़ा है? और क्या अब संपादक महोदय बुक नहीं सिर्फ फेसबुक में ही उलझे रहते हैं? ऐसा लगता नहीं है। अशोक वाजपेयी की शब्दावली में कहें तो वह ''चतुर-सुजान'' आदमी हैं। विवाद की शुरुआत 29 अप्रैल, 12 के अंक में थानवी के लिखे लेख से हुई जिससे ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है मानो वह साहित्य और बौद्धिक जगत में उदारता की वकालत कर रहे हों। इस में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? पर उदारता की आखिर सीमा क्या है या क्या होनी चाहिए इसकी बात वह नहीं करते। असल में इस लेख का असली उद्देश्य वामपंथियों और उनके संगठनों को निशाना बनाना है। दक्षिण पंथ की यह सबसे बड़ी रणनीति रही है कि वह जिसे निशाना बनाता है उसे सबसे पहले अनुदार व कट्टर घोषित करता है और फिर आतंकवादी करार देता है।

फिलहाल लोकतंत्र और उदारता की बात करनेवाले पश्चिम द्वारा दुनिया के मुसलमानों के खिलाफ यही तरीका अपनाया जा रहा है। दूसरे महायुद्ध के बाद दुनिया भर में ठीक यही रणनीति कम्युनिस्टों के खिलाफ अपनायी गई थी। उसी दौरान कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम जैसी सीआईए पोषित संस्थाएं अस्तित्व में आईं और भारत में उससे ओम जी के आराध्य अज्ञेय व अन्य कलावादी और रेडिकल ह्यूमेनिस्ट जुड़े थे।इस पर याद आया कि थानवी के कम्युनिस्टों पर इस बार निशाना साधने का कारण निजी है। (यह बात और है कि वह नवउदारवादी नीतियों से मेल खा रहा है।) वह कम्युनिस्टों से इसलिए जले बैठे हैं कि उन्होंने थानवी के अज्ञेय महोत्सव को उस तरह सफल नहीं होने दिया जैसा वह चाहते थे। इसलिए मंगलेश डबराल तो सिर्फ बहाना हैं।

इसी तरह वह कहते हैं कि

पंकज बिष्ट देहरादून में रमाशंकर घिल्डियाल 'पहाड़ी' की जन्मशती पर भाजपाई कवि रमेश पोखरियाल निशंक के साथ मंच पर बैठे तो इसकी चर्चा भी तल्खी से हुई।

यह बात भी तथ्यात्मक रूप से गलत है। पंकज बिष्ट मंच पर बैठे ही नहीं। वह सिर्फ अपनी बात कहने के लिए मंच पर चढ़े थे और उस के खत्म होने के साथ नीचे उतर गए। वैसे भी वह मंच निशंक का नहीं था न ही वह अवसर किसी कलावादी या प्रतिक्रियावादी या सांप्रदायिक नेता की जन्मशती का था। बल्कि वह अवसर एक कम्युनिस्ट की जन्मशती का था। बिष्ट वहां क्यों गए और वहां उन्होंने क्या कहा वह सब (समयांतर दिसंबर, 11) उन्हीं के द्वारा लिखा जा चुका है। सच यह है कि आज तक किसी ने उस लिखे हुए को कहीं भी किसी तरह की कोई चुनौती नहीं दी है। यहां तक कि संजालियों-जंजालियों ने भी नहीं। वामपंथियों ने कहीं भी इस बात पर आपत्ति नहीं की कि पंकज बिष्ट वहां क्यों गए। जहां और जिन लोगों ने शुरू में करने की कोशिश की उनसे ओम थानवी खासे परिचित हैं। वे वामपंथी नहीं हैं हां संजालिए जरूर हैं। उन्हें वामपंथी कहने के पीछे थानवी के निहित स्वार्थ हैं जो छिपे नहीं हैं।

पर हम इस विवाद पर समय खराब करने की जगह उनके द्वारा प्रस्तुत तथ्यों पर बात करने की कोशिश करते हैं।

कोई कहां जाता है और क्यों जाता है यह मसला निजी विवेक और तात्कालिकता से जुड़ा होता है। उदाहरण के लिए आपातकाल में वामपंथ और आरएसएस तक ने मिल कर काम किया था। या माना कल को नरेंद्र मोदी अहमदाबाद में कोई आयोजन वली दकनी पर करें तो कैसे कोई सेक्युलर कवि, बुद्धिजीवी या संस्था उसमें भाग लेने जा सकती है? या धर्मनिरपेक्षता पर ही कोई आयोजन करे तो कोई कैसे वहां जाएगा? अपने उत्तर में चंचल चौहान ने यह बात बड़े तार्किक ढंग से रख दी है। उन्होंने थानवी के इस अरोप को भी बे-बुनियाद साबित कर दिया है कि वामपंथी लेखक संगठन अपने सदस्यों को आदेश देते हैं कि वे कहां जाएं और कहां न जाएं। उन्होंने उदय प्रकाश के जलेस से तथाकथित मोहभंग के झूठ को भी साफ कर दिया है: ''ओम थानवी ने उदय प्रकाश के जनवादी लेखक संघ से 'मोहभंग' के विचित्र कारण की शोधमयी पत्रकारिता करते हुए ऐसा आभास दिया जैसे जनवादी लेखक संघ 'अर्जुन सिंह की गोद में जा बैठा', और इस वजह से उदय प्रकाश जलेस से भाग गए, ऐसा विचित्र तर्क तो उदय प्रकाश भी संभवत: स्वीकार नहीं करेंगे, और जलेस से उन्होंने इस्तीफा दे दिया हो, ऐसा भी कोई सबूत नहीं है।'

पर थानवी के लेख में हिंदी साहित्य के परम पीडि़त लेखक उदय प्रकाश को लेकर कुछ बहुत ही मजेदार बातें कही गई हैं। उन पर आने से पहले हम याद दिलाना चाहेंगे कि जब अर्जुन सिंह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे तब उदय प्रकाश दौड़कर नौकरी के लिए भोपाल पहुंचे थे। वहां उन्हें किसने बुलाया था या वह कैसे गए थे इन पर विस्तार से बात करने का यह स्थान नहीं है। उन्होंने उदय प्रकाश के इंटरनेट के हाल के लेख को उद्धृत करते हुए कहा है कि वह 16 साल सीपीआई के पूर्णकालिक सदस्य थे, बाईस वर्ष सीपीएम से जुड़े जनवादी लेखक संघ में सक्रिय रहे। सात साल पहले उनका जनवादी लेखक संघ से मोहभंग हुआ है।

अब जरा इस गणित को देखिये। इसका सीधा-सा अर्थ यह है कि उदय प्रकाश दिल्ली आने के बाद, और वह दिल्ली आपात काल के दौरान आ चुके थे, जनवादी लेखक संघ (जिसका जन्म ही 1982 में हुआ) से जुड़ गए थे। फिर सात साल पहले उनका जलेस से मोहभंग भी हो चुका है यानी इस तरह 36 वर्ष तो उन्हें दिल्ली में ही हो गए हैं। तब निश्चय ही उससे पहले वह सीपीआई में होंगे। क्या वह सीपीआई के सदस्य 12-13 वर्ष की अवस्था में हो गए थे? क्या उनके इलाके में सीपीआई ने 'बाल-भाकपा' बनाई हुई थी?

अब दूसरी बात लीजिए। थानवी लिखते हैं,

''तीन साल पहले गोरखपुर में उदय के फुफेरे भाई का निधन हो गया। वे जिस कॉलेज के प्राचार्य थे, वहां उनकी बरसी पर आयोजित कार्यक्रम में कॉलेज की कार्यकारिणी के अध्यक्ष और विवादास्पद सांसद योगी आदित्यनाथ ने उदय प्रकाश को उनके भाई की स्मृति में स्थापित पुरस्कार दिया।... उदय बार-बार कहते हैं उन्हें खबर नहीं थी, न अंदाज कि उनके और भाई की स्मृति के बीच योगी आदित्यनाथ आ जाएंगे।''

पहली बात तो यह है कि आदित्यनाथ का साहित्य या पत्रकारिता से कोई संबंध नहीं है। वह उस कालेज की कार्यकारिणी के अध्यक्ष हो सकते हैं जो उनका मठ चलाता है पर उनका अकादमिक जगत से भी कोईसंबंध नहीं है। यहां उनके और राकेश सिन्हा के बीच के अंतर को समझा जा सकता है। राकेश सिन्हा दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीतिविज्ञान के प्राध्यापक हैं और लेखक हैं। यह ठीक है कि उन्होंने हेडगेवार पर किताब लिखी है इस पर भी वह हैं तो लेखक ही। उनसे असहमति और बातचीत की गुंजाइश बनी रहती है पर आदित्यनाथ और एक लेखक के बीच कौन- सा ऐसा बिंदु है जो किसी तरह के संबंध या संवाद की गुंजाइश छोड़ता है? भारत नीति प्रतिष्ठान संघियों का गढ़ हो सकता है पर वह स्वामियों का अखाड़ा तो नहीं ही है। इसलिए उसे लेकर जिस तरह से विवाद खड़ा किया गया है वह पूरी तरह शंकास्पद है। फिर आदित्यनाथ मात्र विवादास्पद नहीं हैं बल्कि घोर सांप्रदायिक और जातिवादी हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई सांप्रदायिक दंगों से उनका संबंध रहा है और 'उत्तर प्रदेश को गुजरात बना देना है' जैसे आह्वान वह समय-समय पर करते रहे हैं। यही कारण है कि लेखकों ने उदय प्रकाश के आदित्यनाथ के हाथ से 'कुंवर नरेंद्र प्रताप सिंह स्मृति सम्मान' लेने की आलोचना करते हुए कहा था: 'हम अपने लेखकों से एक जिम्मेदार नैतिक आचरण की अपेक्षा रखते हैं...।' (उस समारोह के निमंत्रण पत्र में बतलाया जाता है कि उदय प्रकाश का नाम कुंवर उदय प्रकाश सिंह छपा था। क्या यह संयोग मात्र था?) यहां याद करना जरूरी है कि लेखक कोई तटस्थ व्यक्ति नहीं होता है। यह देश सांप्रदायिकता के कारण विभाजन जैसी त्रासदी से गुजर चुका है और आज भी इस समस्या से पार नहीं पा सका है। नरेंद्र मोदी और आदित्यनाथ इस समाज के लिए कलंक हैं। हर रचनात्मक कर्म का संबंध गहरी नैतिक चेतना और दायित्व बोध से होता है। अगर ऐसा नहीं होता तो लेखक होने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। यही कारण है कि उदय प्रकाश और मंगलेश डबराल आदि की द्विजदेव पुरस्कार लेने के लिए आलोचना की गई थी। द्विजदेव ने 1857 में अंग्रेजों का साथ दिया था और स्वतंत्रता सेनानियों के दमन के पुरस्कार स्वरूप उन्हें अयोध्या की जागीर मिली थी।

पर इन सब बातों को छोडि़ए। तत्काल कई सवाल हैं जिनके जवाब उदय प्रकाश को (और उनके पब्लिसिस्ट ओम थानवी को भी) देने चाहिए। पहला, उनके फुफेरे भाई के नाम पर शुरू किया गया वह पुरस्कार क्या सिर्फ परिवार के ही लोगों के लिए था या औरों के लिए भी था? अगर औरों के लिए भी था तो क्या शालीनता के लिए उदय प्रकाश को यह नहीं कहना चाहिए था कि इस पुरस्कार को कम से कम पहली बार परिवार से बाहर के किसी और लेखक को दिया जाए, मैं बाद में ले लूंगा? यह किसी से छिपा नहीं है कि उदय प्रकाश हिंदी के सबसे ज्यादा अलंकृत लेखकों में से हैं। अगर वह एक पुरस्कार के लिए थोड़ा रुक ही जाते तो क्या उनकी प्रतिष्ठा घट जाती?

क्या थानवी बताएंगे कि इस शृंखला का दूसरा, तीसरा या चौथा पुरस्कार किस-किस को मिला है? तब क्या यह सिर्फ उदय प्रकाश को देने के लिए आयोजित किया गया था? कहीं ऐसा तो नहीं है कि स्वर्गीय भाई की स्मृति को सिर्फ आड़ के रूप में इस्तेमाल किया गया हो? ऐसा तो नहीं है कि इस आयोजन के पीछे उद्देश्य कुछ और ही रहा हो, जिसमें आदित्यनाथ महत्त्वपूर्ण घटक था?

इंटरनेट पर ही एक और लेख इस बीच आया है जो सुना है प्रकाशन के लिए पहले जनसत्ता को भेजा गया था पर संपादक महोदय ने उसे छापने से इंकार कर दिया। वह है अशोक कुमार पाण्डेय का। इस लेख में दावा किया गया है कि आदित्यनाथ ने अमर उजाला को दिए अपने साक्षात्कार में विवाद पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि मैंने तो उदय प्रकाश को पहले ही कह दिया था कि मुझे न बुलवाएं विवाद हो जाएगा। यह बात 5 अगस्त, 2009 को इंडिया टुडे हिंदी ने अपने उत्तर प्रदेश संस्करण में भी छापी थी। हफ्तों से चल रहे विवाद में, जिसमें अब तक दर्जन भर लेख छप चुके हैं, जनसत्ता के पास अशोक कुमार पाण्डेय का लेख छापने की जगह नहीं है। इसलिए कि सारा अभियान निश्चित रणनीति के तहत चलाया जा रहा है इसलिए सिर्फ चुनिंदा लेख छप रहे हैं। जो लेख जरा भी असुविधाजनक साबित हो रहे हैं उनका जवाब प्रायोजित तरीके से अगले सप्ताह दिया जा रहा है।

संयोग देखिए, साल के अंदर ही उदय प्रकाश को मोहन दास कहानी (उर्फ उपन्यास?) पर साहित्य अकादेमी मिला।

संयोग और भी बहुत से हैं। जैसे कि साहित्य अकादेमी के उपाध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी उसी गोरखपुर के हैं जहां आदित्यनाथ का लट्ठ पुजता है। (जनवरी, 2011 के दिल्ली मेल में लिखा गया था, ''हिंदी भाषा के संयोजक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी हैं। इस पर याद आया कि पिछले वर्ष किसी प्रसंग में समयांतर में ही लिखा गया था कि आजकल अकादेमी का एक रास्ता वाया गोरखपुर होकर भी जाता है, जो स्वामी आदित्यनाथ का कार्य और संसदीय क्षेत्र है।'')

इसी तरह उदय प्रकाश का जलेस से मोहभंग उसी दौरान होता है जब दिल्ली में एनडीए की सरकार आ जाती है। वह थानवी को बतलाते हैं कि उन्होंने जलेस छोड़ दिया है पर संगठन से नहीं कहते कि वह जलेस छोड़ रहे हैं। न ही इतने बड़े नैतिक स्टैंड (?) की सार्वजनिक घोषणा करते हैं या जलेस की अर्जुन सिंह की गोद में बैठ जाने के लिए आलोचना करते हैं। (निर्बाध आवाजाही के लिए?) इसी दौरान उनका पांचजन्य में साक्षात्कार छपता है। वहां भी तर्क यही है कि मुझे नहीं पता था कि यह साक्षात्कार पांचजन्य के लिए लिया जा रहा है। इस पर उदय प्रकाश की जो छीछालेदर उनकी पुरानी सहयोगी ने की वह पाखी (मई, 2011)के पन्नों में दर्ज है।

यह प्रसन्नता की बात है कि उदय अमेरिका में हैं। वह जिस परंपरा से जुड़ गए हैं वह भी कम भव्य नहीं है: अज्ञेय, कैलास वाजपेयी, निर्मल वर्मा, कृष्ण बलदेव वैद और अशोक वाजपेयी। इनमें कुछ भारतीय दर्शन, संस्कृति और राष्ट्रीयता के अग्रदूत हैं तो कुछ रूपवाद के। पर ओम थानवी यह बताएं कि अगर उदय सीपीआई में होते या सीपीएम में होते तो वर्जीनिया विश्वविद्यालय उन्हें बुलाता? या फिर क्या किसी घोषित कम्युनिस्ट लेखक को आज तक किसी अमेरिकी विश्वविद्यालय ने बुलाया है?

ओम थानवी ने उदय प्रकाश के ब्लॉग में प्रकाशित लेख का उद्धरण विस्तार से छापा है जिसमें उदय ने त्रिलोचन शास्त्री और शैलेश मटियानी के संदर्भ से वामपंथी लेखक संगठनों पर हमला बोला है। उनके अनुसार: '' क्या हम हिंदी के अप्रतिम कवि - और प्रगतिशील कविता वृहत्रयी में से एक - त्रिलोचन को याद करें, जो पहले स्वयं वामपंथी संगठन से निकाले गए, फिर दिल्ली से उनको शहर बदर करके हिंदू तीर्थ-स्थल हरिद्वार भेज दिया गया। अत्यंत विषम परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हुृई ...। क्या हम शैलेश मटियानी को याद करें, जिन्हें जिंदा रहने और अपना परिवार पालने के लिए कसाई (चिकवा-गीरी) का काम करना पड़ा, ढाबों में बर्तन मांजने पड़े?...।'

जिस तरह से ये प्रसंग उठाए गए हैं वे लेखकीय मंशा को पूरी तरह उजागर कर देते हैं। त्रिलोचन शास्त्री को कितनी उम्र में जसम से हटाया गया? उन्हें किसने हरिद्वार भेजा? क्यों भेजा? क्या उनके परिवार में कोई नहीं था? वहां वह किसके साथ रहते थे? उनके दो बेटे कहां हैं? वह अंतिम दिनों में वृद्धावस्था के कारण होनेवाले सेनाइल सिंड्रोम या एलजेमियर से पीडि़त नहीं थे? उनकी मृत्यु भरी-पूरी उम्र में बुढ़ापे से जुड़ी बीमारियों के कारण हुई, क्या यह सच नहीं है?

मटियानी को कसाई का काम अपनी पारिवारिक दुकान में करना पड़ा था। इसमें क्या बुराई है? काम तो काम है! उदय प्रकाश जिस ब्राह्मणवाद की कब्र खोदने में लगे हैं क्या वह स्वयं उसी के शिकार नहीं नजर आते हैं? वैसे क्या लेखक दलाई लामा होता है कि पैदा होने के साथ ही उसमें ऐसे चिह्न होते हों कि उसे तुरंत पहचान लिया जाए कि बेटा नामी कथाकार होने वाला है? एक बार लेखक बन जाने के बाद मटियानी ने सिवा लेखन के क्या कोई और काम किया? नौकरी न करना उनका अपना निर्णय था। ऐसा भी नहीं है कि उन्हें नौकरियां मिलती ही नहीं या मिल ही नहीं रही थीं।

मटियानी, शास्त्री आदि के नाम का इस्तेमाल करना आसान है, उनके डंडे से दूसरों को पीटना तो और भी आसान। पर क्या उदय प्रकाश बतलाएंगे कि जब मटियानी दिल्ली के मानसिक रोग चिकित्सालय में भर्ती थे वह उनसे एक बार भी मिलने गए थे? यह अस्पताल उदय प्रकाश के घर से चार-पांच किलोमीटर की दूरी पर ही है। उनके पास तो कार भी कई वर्षों से है। क्या उन्होंने कभी मटियानी की कहानियों पर या उनके जीवन संघर्ष पर कहीं एक पैरा भी लिखा है? उन्हें कहीं श्रद्धांजलि ही दी हो? वह तो हिंदी में पीएचडी हैं। इतना तो कर ही सकते थे। त्रिलोचन शास्त्री के लिए उन्होंने क्या किया, जो बीमारी के दौरान अंतिम दिनों में उनके घर के बगल में ही रहते थे? उदय प्रकाश और थानवी को भी याद दिलाना जरूरी है कि शास्त्री जी के उपचार व मदद के लिए दिल्ली की मुख्य मंत्री के पास जो प्रतिनिधि मंडल गया था उसमें कई वामपंथी लेखक निजी तौर पर और उनके तीनों संगठन के प्रतिनिधि शामिल थे पर जो रिपोर्ट जनसत्ता में इस संबंध में छपी थी, क्या उसमें उदय प्रकाश का नाम था? वैसे यह बतलाना जरूरी है कि दिल्ली सरकार ने शास्त्री जी की भरसक मदद की थी। इसी तरह भाजपा सरकार ने शैलेश मटियानी की।

थानवी ने लिखा है:

''एक लेखक के किसी कार्यक्रम में हिस्सा लेने के विरोध में इतनी बड़ी तादाद में हिंदी लेखक न कभी पहले एकजुट हुए, न बाद में।''

निश्चय ही यह सही है पर इस के साथ यह भी सही है कि इस दर्जे की अवसरवादिता न कभी पहले देखने को मिली और न ही बाद में। पर ऐसा भी नहीं है कि हिंदी लेखक समय-समय पर उन बातों का विरोध न करते रहे हों जिनसे समाज और साहित्य का सरोकार हो। स्वयं जनसत्ता के सती प्रथा का महिमा मंडन करनेवाले एक संपादकीय का विरोध करने में पूरे सौ लेखक शामिल थे। इसलिए लेखकों का विरोध न कोई नई बात है और न ही आश्चर्य की। समझने की बात यह है कि वह किसी एक कारण तक सीमित नहीं होता और न ही भविष्य में होगा।

जो भी हो यह कितना दुखद है कि उदय प्रकाश निजी स्कोर सैटल करने के लिए दो दिवंगतों का इस्तेमाल इतनी अशालीनता और हृदयहीनता से करने में जरा भी झिझक नहीं महसूस कर रहे हैं और थानवी भी उसी हथियार से वामपंथियों के आखेट का आनंद ले रहे हैं।

- दरबारी लाल 

अगले भाग में जारी.....

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