Saturday, June 16, 2012

आधुनिक वैज्ञानिक विचारों का परिवेश अभी भी विकसित नहीं हुआ है हिन्दीभाषी बुद्धिजीवियों में

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आधुनिक वैज्ञानिक विचारों का परिवेश अभी भी विकसित नहीं हुआ है हिन्दीभाषी बुद्धिजीवियों में

आधुनिक वैज्ञानिक विचारों का परिवेश अभी भी विकसित नहीं हुआ है हिन्दीभाषी बुद्धिजीवियों में

By  | June 16, 2012 at 3:01 pm | No comments | शब्द

पुस्तकअंश-
"हिन्दीभाषी बुद्धिजीवियों में "एक हजार शब्दों " और "बातूनी संस्कृति" की विमर्श परंपरा चल पड़ी है। चलताऊ ढंग़ से लिखा -पढ़ा जा रहा है । इससे परवर्ती पूंजीवाद के वैचारिक तंत्र की बारीकियां समझ में नहीं आतीं। यह किताब सीरीज "हजार शब्दों की संस्कृति" और "बातूनी संस्कृति" के प्रत्युत्तर में लिखी गयी है। यह किताब मीडिया सिध्दान्तकार श्रृंखला की दूसरी किताब है। हिन्दीभाषी समाज पर जिस तरह के वैचारिक और मीडियाजनित दबाव हैं उनसे लड़ने में यह किताब सीरीज मददगार हो साबित हो सकती है।
हिन्दी का बुद्धिजीवी ग्लोबल बुद्धिजीवी है। किंतु ज्ञान में वह अभी भी 19वीं शताब्दी के बोझ में दबा पड़ा है। उसके मूल्यांकन और नजरिए पर अभी 19वीं शताब्दी हावी है। उसके आलोचना के उपकरण भी इसी दौर के हैं। हिन्दीभाषी बुद्धिजीवियों में जिस तरह का साहस है, जुझारू भाव है और कर्मशीलता है उसके अनुरूप आधुनिक वैज्ञानिक विचारों का परिवेश अभी भी विकसित नहीं हुआ है। आधुनिक विचारों के बिना मनुष्य अपनी समग्र पहचान अर्जित नहीं करता।
हिन्दीभाषी बुद्धिजीवी की आर्थिक हैसियत परवर्ती पूंजीवाद में तेजी से बदली है। उसकी आर्थिकदशा में सुधार आया है किंतु सांस्कृतिक दशा और दिशा में गिरावट आयी है। हिन्दीभाषी बुद्धिजीवी ने वैचारिक उत्कर्ष का मार्ग ग्रहण करने की बजाय आर्थिक उत्कर्ष के पथ पर अपने कदम बढ़ा दिए हैं। उसके पास दौलत है किंतु विचारों की दौलत खाली होती जा रही है। हमारे जीवन की वास्तविकता बदल चुकी है। सामाजिक,राजनीतिक और सांस्कृतिक यथार्थ बदल चुका है। आज हमें सिर्फ हिन्दीजगत के बारे में ही नहीं बल्कि सारी दुनिया के बारे में सामयिक परिप्रेक्ष्य बनाने की जरूरत है। इसके लिए जरूरी है कि हिन्दीभाषी बुद्धिजीवी अपने संसार के बाहर आकर झांके। खुले मन और खुले दिमाग से सारी दुनिया को देखे,समझे और बदले। अपने बंद आलोचकीय जगत के बाहर आए और परवर्ती पूंजीवाद के विचारतंत्र की पेचीदगियों को समझने की कोशिश करे। वह पुरानी आलोचना धारणाओं की पुनरावृत्ति से बचे और नए को सीखे और उसका विकास करे। नए विचार,नयी धारणाएं नए किस्म के वैचारिक जोखिम को पैदा करते हैं और हिन्दीभाषी बुद्धिजीवी को यह दायित्व लेना चाहिए।विचार जगत में आए उन मूलगामी परिवर्तनों को समझना होगा जो उसे परवर्ती पूंजीवाद की वैज्ञानिक समझ देते हैं। उसे वैचारिक तौर पर अग्रवर्ती कतारों में शामिल करते हैं। "
किताब का नाम- मीडिया प्राच्यवाद और वर्चुअल यथार्थ
लेखक-जगदीश्वर चतुर्वेदी,सुधा सिंह, प्रकाशक- अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स,(प्रा.)लि. 4697/3, 21 A,अंसारी रोड,दरियागंज,नई दिल्ली-110002,मूल्य- 750रूपये,यह किताब पेपरबैक संस्करण में भी उपलब्ध है.
E-mail- anamikapublishers@yahoo.co.in

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