Monday, June 18, 2012

हिंदुत्व की पालकी के नए सवार

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Monday, 28 May 2012 10:23

अरुण कुमार त्रिपाठी 
जनसत्ता 28 मई, 2012: मुंबई में हिंदुत्व की पालकी के नए सवार ने अपने आसन पर कब्जा जमा लिया है। पुराने सवारों ने नाराजगी में ही सही, पर पालकी छोड़ दी है। यानी हिंदुत्व की नई यात्रा के लिए रास्ता साफ होता जा रहा है लेकिन उसे शुरुआती चुनौती कहारों से मिल रही है। जो सवार हो चुके थे और आगे शाही सवारी करना चाहते थे, वे तो अब कंधा देने से रहे और जब कहार सवार बन चुके हैं तो नए कंधे कहां से मिलेंगे? जनाधारहीन नेता संजय जोशी को राष्ट्रीय कार्यकारिणी से बाहर का रास्ता दिखा कर नरेंद्र भाई मोदी ने यह तो बता दिया है कि पार्टी की असली ताकत किसके पास है। नितिन गडकरी भले ही दोबारा अध्यक्ष बन गए हों और संजय जोशी को अपने लोकसभा चुनाव के लिए मैनेजर के तौर पर साथ रखना चाहते हों लेकिन पार्टी अध्यक्ष के तौर पर वे उनका पुनर्वास कराने में सफल नहीं हो पाए। वजह साफ है कि संजय जोशी ने 2001 में उस समय नरेंद्र मोदी के खिलाफ गोलबंदी शुरू कर दी थी जब केशुभाई को हटा कर उन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया था। मोदी अपने विरोधियों को माफ नहीं साफ कर देते हैं। वही क्षेत्रीय स्तर पर केशुभाई के साथ हुआ और राष्ट्रीय स्तर पर संजय जोशी से शुरू हुआ यह सिलसिला किसी तक जा सकता है। 
राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद मुंबई की रैली से जिस तरह लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज जैसे राष्ट्रीय नेता छोटे-छोटे और नाकाफी कारणों से गैरहाजिर रहे और मंच पर नरेंद्र मोदी का एकछत्र दबदबा दिखा, उससे साफ है कि भाजपा में मोदी युग की शुरुआत हो चुकी है। अब देखना है कि यह युग राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से होता हुआ राष्ट्रीय स्तर पर विजय प्राप्त करता है या पार्टी के आंतरिक सत्ता संघर्ष और फिर राजग के सैद्धांतिक और व्यावाहारिक विवादों में फंस कर क्षतिग्रस्त हो जाता है। 
भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय फलक पर नरेंद्र मोदी का उभरना तीन प्रकार के राजनीतिक बदलावों का संकेत है। पहला यह कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से थोड़ी बहुत खींचतान के बावजूद भाजपा कट्टर हिंदुत्व की विचारधारा को साधेगी। संघ परिवार तो वह सपना वर्षों से देख रहा है लेकिन नरेंद्र मोदी को उस सपने की सवारी आ गई है। दूसरा संदेश यह भी है कि भाजपा जैसे राष्ट्रीय दल के भीतर राष्ट्रीय नेतृत्व का प्रभाव समाप्त हो चुका है और उसकी जगह क्षेत्रीय नेतृत्व राष्ट्रीय रूपांतरण कर रहा है। तीसरी बात जो ज्यादा महत्त्वपूर्ण है वह यह कि जो पिछड़ी जातियां हिंदुत्व का सिद्धांत गढ़ने वाली अगड़ी जातियों की पालकी का बोझ ढोती फिरती थीं अब वे स्वयं सवारी करना चाहती हैं। उन्होंने उसके लिए पर्याप्त दमखम तैयार कर लिया है। अगर अगड़ी जातियां पालकी ढोने को नहीं तैयार होंगी तो वे उसके लिए भी इंतजाम कर लेंगी। 
मुंबई में भाजपा नेतृत्व का जो ढांचा उभरता दिखा वह स्पष्ट तौर पर क्षेत्रीय क्षत्रपों के राष्ट्रीयकरण का संकेत है और पिछडेÞ नेतृत्व के सांस्कृतीकरण का संकेत भी। यह परिघटना कुछ वैसी ही है जैसी विभिन्न क्षेत्रीय नेताओं की राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ती अहमियत या देश के कई क्षेत्रीय अखबारों का राष्ट्रीय बनना। भाजपा के भीतर सवर्ण और अवर्ण नेतृत्व के बीच आदर, प्रेम और अनुशासन के रिश्ते के साथ-साथ एक प्रकार की खींचतान का संबंध लंबे समय से रहा है। सवर्ण नेतृत्व की हिंदुत्व की परियोजना के योद्धा बन कर पिछड़ों ने उसे ताकत दी तो वे सत्ता और संगठन में अपना हिस्सा भी मांगते रहे। उसमें वे एक सीमा तक ही सफल हो पाते थे क्योंकि सत्ता-संघर्ष में उनका संयम जवाब दे जाता था और वे राष्ट्रीय नेतृत्व से खुले टकराव में बिखर जाते थे। 
अगर भाजपा में कट्टर हिंदुत्व ही राष्ट्रीय स्तर पर उभरने का आधार होता तो कल्याण सिंह कब के बड़े नेता हो चुके थे। क्योंकि 2002 की सांप्रदायिक हिंसा की जिस घटना का नफा-नुकसान उठा कर नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय स्तर पर उठे उसके मुकाबले 1992 की घटना तो बहुत बड़ी थी। बल्कि 2002 की जड़ में तो वही घटना थी। राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए कल्याण सिंह का नाम चला भी लेकिन वे उपाध्यक्ष तक पहुंच कर रह गए।
कल्याण सिंह उत्तर प्रदेश में अपने प्रतिद्वंद्वी सवर्ण नेताओं को काबू में नहीं रख पाए और बाद में अटल बिहारी वाजपेयी जैसे राष्ट्रीय स्तर पर सर्वमान्य सवर्ण नेता से टकरा कर किनारे हो गए। कुछ ऐसा ही हश्र उमा भारती का भी हुआ। वे राष्ट्रीय स्तर पर आडवाणी से टकरा गर्इं और हाराकीरी कर बैठीं। ऐसा ही कुछ बीएस येदियुरप्पा भी कर रहे हैं। लेकिन गनीमत है कि उन्हें उद्धारक के तौर पर नरेंद्र मोदी मिल गए हैं। 
मोदी भी कल्याण सिंह, उमा भारती और येदियुरप्पा की तरह स्वतंत्र स्वभाव के पिछडेÞ नेता हैं। वे भी अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर आडवाणी को चुनौती देते रहे हैं। लेकिन यह उनकी फितरत और राजनीतिक कौशल है कि वे हिंदुत्व की योजना में इस्तेमाल होते हुए भी उसके शिकार नहीं हुए। उन्होंने उन लोगों को शिकार बनाया जो उनके माध्यम से शिकार करते हुए उन्हें शिकार बनाना चाहते थे। यह बात जाहिर है कि अटल बिहारी वाजपेयी 2002 के दंगों के बाद उन्हें हटाना चाहते थे लेकिन नहीं हटा पाए। वाजपेयी ने उन्हें जिस राजधर्म के पालन की सलाह दी थी, उसे उन्होंने नहीं अपनाया, फिर भी टिके रहे।
संघ परिवार ने जिस शेर की सवारी करनी चाही थी आज वही उस पर सवार हो गया है। संघ की इस योजना और उसकी दुविधा को व्यक्त करने के लिए राजनीति शास्त्री कांचा इलैया की टिप्पणी   मौजूं है- हिंदुत्व की मुख्य समस्या यह थी कि शूद्रों और अन्य पिछड़ा वर्ग को किस तरह बराबरी का आध्यात्मिक हक दिए बिना अपने दायरे में लाया जाए। यह बात सही है कि अन्य दलों के मुकाबले भाजपा ने अन्य पिछड़ा वर्ग को अपने भीतर जगह देते हुए उसे ज्यादा आकर्षित किया, क्योंकि वह समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के जटिल यूरोपीय विमर्शों के बजाय देशी जुबान बोल रही थी।

यह सिलसिला 1951 में बने जनसंघ के समय से ही चल रहा था। दूसरी तरफ मोदी के टिके रहने और मजबूती पाने के पीछे की वजहें बताते हुए कांचा इलैया कहते हैं- लगता है मोदी ने यह अहसास कर लिया कि त्याग और बलिदान नहीं, हिंसा का हथियार ही किसी व्यक्ति को नायक बना सकता है और धर्म के सामाजिक मूल्य जीतने वाले के साथ जुड़ते हैं न कि हारने वाले के साथ। 
लेकिन जो नरेंद्र मोदी कभी लालकृष्ण आडवाणी के रथ को सोमनाथ से अयोध्या लेकर गए थे और फिर उन्होंने 2002 में उसकी नई पताका फहराई, वे ही अब हिंदुत्व के रथ को अयोध्या से अमदाबाद ले जाना चाहते हैं। वडोदरा ले जाना चाहते हैं। वे वहां का विकास दिखाना चाहते हैं और बताना चाहते हैं कि किस तरह सिंगूर और नंदीग्राम से भगाए गए उद्योग वहां आए और किस तरह उन्होंने सूखे पर नियंत्रण किया जिसे महाराष्ट्र और देश के दूसरे राज्य काबू नहीं कर पाए। अगर वे उस रथ को सोमनाथ ले भी जाना चाहते हैं तो उस सोमनाथ, जिसके ब्रांड अंबेसडर अमिताभ बच्चन हैं, न कि वह सोमनाथ जहां गजनी ने हमला किया था। वे लगातार विजय और विकास की भाषा बोल रहे हैं, न कि उत्पीड़न और प्रताड़ना की। वे गुजरात को विकास का मॉडल बना कर पेश कर रहे हैं। इसी से वे भी ब्रांड बने हैं और तभी अमेरिका की टाइम पत्रिका उन्हें 'काम करने वाला आदमी' बता कर अपने आवरण पर छापती है। 
मोदी गुजरात के आर्थिक विकास को पूरे देश में मॉडल बना कर पेश कर रहे हैं बिना यह समझे हुए कि देश महज गुजरात नहीं है। यही कारण है कि आर्थिक मामलों पर लालकृष्ण आडवाणी की भाषा उनसे अलग है और वे कहते हैं कि भाजपा को अब एक योजना बना कर राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को दिशा देनी चाहिए। लोग बहुत दिक्कत में हैं। वे हमारी तरफ उम्मीद से देख रहे हैं, हमें उनकी उम्मीदों को पूरा करना चाहिए। देश का कांग्रेस-विरोधी मानस उसे मौका दे रहा है और उसे इसका फायदा उठाना चाहिए। 
भाजपा में मोदी युग के आरंभ होने से कांग्रेस में इस बात पर खुशी है कि चलो अब तृणमूल कांग्रेस उसकी तरफ ज्यादा आकर्षित नहीं होगी और जनता दल (एकी) जैसी पार्टियां भी दूरी बनाएंगी। इस तरह उसे अपनी धर्मनिरपेक्षता दिखा कर जहां वाममोर्चा के हमले को कुंद करने में मदद मिलेगी वहीं यूपीए के भीतरी और बाहरी घटकों को बांधने में और सुविधा होगी। मोदी से अल्पसंख्यकों की नाराजगी का आलम तमाम राजनीतिक दल गुजरात की तारीफ करने के बाद दारुल उलूम देवबंद के कुलपति वस्तानवी के हश्र के तौर पर देख भी चुके हैं। लेकिन कांग्रेस यह भूल रही है कि मोदी हिंदुत्व ही नहीं उदारीकरण के भी आक्रामक पैरोकार हैं। 
कांग्रेस अगर उदारीकरण पर धीमी चाल चलती है तो कॉरपोरेट लॉबी ही नहीं मध्यवर्ग का भी बाजारवादी हिस्सा उससे कटता है और अगर तेज चलती है तो सामान्य जनता के साथ तमाम राजनीतिक दल उसके विरोध में खड़े हो जाते हैं। इस बीच भ्रष्टाचार-विरोधी और लोकपाल-समर्थक आंदोलन खडेÞ हो जाते हैं या खडेÞ किए जाते हैं जो मोदी को आदर्श बताते हैं। भाजपा इन दोनों मौकों को लपकने के लिए तैयार बैठी है। लेकिन पार्टी का नेतृत्व हथिया लेने वाले मोदी यह भूल रहे हैं कि इस देश में राष्ट्रीय और क्षेत्रीय नेतृत्व का विचित्र विभाजन रहा है। राष्ट्रीय नेतृत्व की क्षेत्रीय जड़ें कमजोर भले हुई हों और वह समाप्त भी हो गया हो लेकिन किसी क्षेत्रीय नेता को अब तक राष्ट्रीय नेता बनते देखा नहीं गया। वह राष्ट्रीय दबाव भले बना ले जाता हो और हो सकता है कि देवगौड़ा की तरह कभी प्रधानमंत्री भी बन जाता हो लेकिन एक अखिल भारतीय प्रभाव नहीं छोड़ पाता। 
मोदी अगर राष्ट्रीय नेता बनने में सफल होते हैं तो भाजपा के भीतर ही नहीं, बाहर भी, राष्ट्रीय राजनीति में नए तरह का रूपांतरण होगा। मोदी का बहाना लेकर तमाम पिछडेÞ नेता कांग्रेस में अपनी अहमियत बढ़ाने का दबाव बनाएंगे। यानी अब हिंदू बनाम हिंदू यानी उदारता और कट्टरता की लड़ाई सवर्ण और अवर्ण के बीच नहीं, अवर्णों के बीच ही लड़ी जाएगी। सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता दोनों उनके हथियार हैं। 
ऐसे में अपना महत्त्व खोती जा रही और भाजपा से काफी उम्मीद पाले रही सवर्ण राजनीति भी अण्णा हजारे और रामदेव के साथ मिल कर कुछ कर सकती है। मंडल आयोग की रपट लागू होने के बाद उसने उदारीकरण और मंदिर आंदोलन को अपना हथियार बनाया था। पर अब वे हथियार उसके हाथ से निकल चुके हैं। देखना है संघ परिवार उसे सत्ता में हिस्सेदारी देता है या प्रचारक बना कर छोड़ देता है। या कांग्रेस पार्टी उसके लिए कोई भूमिका तैयार करती है। क्योंकि वह हिंदुत्व के नए सवार की पालकी ढोने से हिचक रहा है और सवारी उसे मिलने से रही।

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