Saturday, June 23, 2012

सामाजिक न्याय की लड़ाई : पिछड़ों के लिए आरक्षण

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सामाजिक न्याय की लड़ाई : पिछड़ों के लिए आरक्षण

सामाजिक न्याय की लड़ाई : पिछड़ों के लिए आरक्षण

By  | June 23, 2012 at 3:30 pm | No comments | बहस

राम पुनियानी

उच्चतम न्यायालय द्वारा पिछले साल दिसम्बर में, मुसलमानों के लिए कोटे के अंदर कोटा  निर्धारित करने की प्रक्रिया पर अप्रसन्नता व्यक्त किए जाने के बाद से, सरकार न्यायालय में तत्संबंधी आंकड़े प्रस्तुत करने की तैयारी में लगी हुई है। उच्चतम न्यायालय ने सरकार से कहा है कि वह मुसलमानों के लिए 4.50 प्रतिशत का आरक्षण देने का आधार बताए। समीचीन अध्ययनों और दस्तावेजों के आधार पर सरकार अपने कदम का औचित्य सिद्ध करना चाहती है। उच्चतम न्यायालय ने यह निर्देश, आंध्रप्रदेश उच्च न्यायालय के जून 2011 के उस निर्णय को चुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई करते हुए दिया, जिसमें उच्च न्यायालय ने मुसलमानों के लिए कोटे के अंदर कोटा निर्धारित करने का सरकार का निर्णय रद्द कर दिया था। आंध्रप्रदेश उच्च न्यायालय का कहना था कि धर्म के आधार पर आरक्षण असंवैधानिक है। यह निर्णय संविधान की कुछ अजीब सी व्याख्या पर आधारित था। संविधान की मूल भावना यह है कि यद्यपि जाति, धर्म और वर्ग के आधार पर देश के नागरिकों के बीच कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा तथापि यदि कुछ समुदाय सामाजिक भेदभाव के शिकार हैं और वंचित हैं, तब सामाजिक असमानता दूर करने के उद्देश्य से ऐसे समुदायों को आरक्षण की सुविधा का लाभ दिया जा सकेगा।

भारतीय जनता पार्टी ने अपनी अल्पसंख्यक-विरोधी और आरक्षण-विरोधी नीति के अनुरूप, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आंध्रप्रदेश उच्च न्यायालय के निर्णय पर रोक न लगाए जाने का स्वागत किया। भाजपा के प्रवक्ता ने कांग्रेस के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार पर यह आरोप भी लगाया कि वह अपने साम्प्रदायिक एजेन्डे को लागू कर रही है और वोट बैंक की राजनीति खेल रही है। इससे यह अर्थ निकाला जाना स्वाभाविक है कि भाजपा चाहती है कि वर्तमान सामाजिक असमनाताएं बनीं रहें। भाजपा का लक्ष्य समानता और न्याय पर आधारित समाज का निर्माण नहीं है। धर्म-आधारित राष्ट्रवाद, भाजपा का वास्तविक पथप्रदर्शक है। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि कांग्रेस भी असल में मुसलमानों को आरक्षण देना नहीं चाहती है। इस मान्यता का आधार यह है कि कांग्रेस ने कभी भी समाज के कमजोर वर्गों व विशेषकर अल्पसंख्यकों की बेहतरी के लिए सकारात्मक कदम उठाने की राजनैतिक इच्छाशक्ति नहीं दिखाई।

संविधान में शैक्षणिक और आर्थिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों को आरक्षण दिए जाने का प्रावधान है। वर्तमान भारत के मुसलमान निःसंदेह आर्थिक और शैक्षणिक दृष्टि से अत्यंत पिछड़े हुए हैं। उनके शैक्षणिक पिछड़ेपन को केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्रालय व गृह मंत्रालय की अनेक रपटों में समय-समय पर रेखांकित किया जाता रहा है। जहां तक मुसलमानों की आर्थिक बदहाली का प्रश्न है, सच्चर समिति (2006) व रंगनाथ मिश्र आयोग (2007) की रपटों ने इसे देश के सामने रखा है। इन तथ्यों के प्रकाश में, मुसलमानों को आरक्षण प्रदान कर हमारे देश की सामाजिक और राजनैतिक आवश्यकता को पूरा करने के लिए कौन-सा कानूनी रास्ता अपनाया जा सकता है, यह तय करना केन्द्र सरकार के लिए एक चुनौती है।

कांग्रेस सरकार ने इस मुद्दे को उत्तरप्रदेश के सन् 2012 के विधानसभा चुनाव के बाद से गंभीरता से लेना शुरू किया है। उत्तरप्रदेश में चुनाव प्रचार के दौरान, कांग्रेस ने मुसलमानों को 4.50 प्रतिशत आरक्षण देने का वायदा किया था। चूंकि यह वायदा चुनाव प्रचार के दौरान किया गया था अतः इसे एक राजनैतिक चाल के रूप में भी देखा जा रहा था। सच तो यह है कि हमारे देश में कमजोर वर्गों की बेहतरी के लिए सकारात्मक कदम उठाए जाने अत्यंत आवश्यक हैं। हमारे देश में पहले से ही अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों व अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण है। भाजपा आरंभ से ही आरक्षण की इस नीति की विरोधी रही है। भाजपा का कहना है कि आरक्षण से गुणानुक्रम का महत्व समाप्त हो जाता है। हमारे समाज में गुणानुक्रम का वैसे भी कोई महत्व नहीं है। गुणानुक्रम को पैसे से खरीदा जाना आम है। कैपिटेशन फीस लगभग सभी निजी कालेजों में वसूली जाती है। व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में सीटें खरीदने का प्रचलन आम है। क्या इससे सीधे-सीधे गुणानुक्रम की उपेक्षा नहीं होती? गुणानुक्रम को सामाजिक-आर्थिक असमानताएं भी प्रभावित करती हैं और ये असमानताएं ही समाज के कुछ वर्गों के पिछड़ेपन का कारण हैं। देश में समय-समय पर पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का विरोध करने वाले आंदोलन होते रहे हैं।

इस मुद्दे के कई पहलू हैं। एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जाना चाहिए। इस सिद्धांत से कोई असहमत नहीं हो सकता। परंतु मुद्दा यह है कि मुसलमानों को उनके आर्थिक-शैक्षणिक-सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण दिया जा रहा है,  उनके धर्म के आधार पर नहीं। इस प्रश्न को हम पलटकर देखें। क्या किसी वंचित वर्ग को सिर्फ इस आधार पर आरक्षण न दिया जाना उचित होगा कि वह किसी धर्म-विशेष का अनुयायी है? यह तो भेदभाव की हद होगी। वैसे भी सभी मुसलमानों को आरक्षण देने पर विचार नहीं हो रहा है। केवल अन्य पिछड़े वर्गों के मुसलमानों को आरक्षण देने की बात कही जा रही है। एक समय था जब मुस्लिम उलेमा यह दावा करते थे कि चूंकि मुसलमानों में जाति प्रथा नहीं है इसलिए उनमें से कुछ को आरक्षण दिया जाना अनुचित होगा। यह सही है कि इस्लामिक धर्मशास्त्र में जाति के लिए कोई स्थान नहीं है। सैद्धांतिक तौर पर सभी मुसलमान एक बराबर हैं। परंतु सामाजिक यथार्थ यह है कि मुसलमानों में भी जातियां हैं और इस तथ्य को अनेक जांच आयोगों ने बार-बार स्वीकार किया है। यह तर्क कि मुसलमानों के लिए आरक्षण को अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग की स्वीकृति के बिना लागू नहीं किया जा सकता, उचित है और सरकार को इस प्रक्रिया से गुजरना चाहिए।

उच्चतम न्यायालय के मुसलमानों को आरक्षण के औचित्य व आधार से संबंधित प्रश्न का समाधानकारक उत्तर दिया जाना चाहिए। सच्चर समिति और रंगनाथ मिश्र आयोग ने इस संबंध में अत्यंत तथ्यपरक और व्यापक अध्ययन किए हैं और सरकार को इन रपटों को आधार बनाकर, अपना पक्ष उच्चतम न्यायालय के समक्ष रखना चाहिए। इन रपटों के आंकड़ों का समुचित इस्तेमाल सरकार के पक्ष को मजबूत करेगा। एक प्रश्न यह भी है कि मुसलमानों को केवल 4.50 प्रतिशत आरक्षण ही क्यों दिया जाए। रंगनाथ मिश्र आयोग ने उन्हें 8.40 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने की सिफारिश की है। यह मुद्दा बहस का विषय हो सकता है परंतु यह स्पष्ट है कि किसी भी वर्ग को आबादी में उसके अनुपात के अनुरूप आरक्षण दिया जाना हमेशा संभव नहीं हो सकता। उदाहरणार्थ, अन्य पिछड़ा वर्ग देश की आबादी का 52 प्रतिशत हैं परंतु उन्हें केवल 27 प्रतिशत आरक्षण दिया गया है। और इसी 27 प्रतिशत में से मुसलमानों के लिए उप-कोटा निर्धारित किया जाना है।

इसके समानांतर, चुनाव और राजनीति के क्षेत्रों में भी कुछ कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। हम सब जानते हैं कि हमारी संसद और राज्य विधानसभाओं में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व लगातार घटता जा रहा है। स्वतत्रंता के पूर्व, पृथक मताधिकार के मुद्दे ने देश में हंगामा बरपा कर दिया था और इसने ही सामाजिक अलगाव और अंततः देश के त्रासद विभाजन की नींव रखी थी। इसलिए पृथक मताधिकार की व्यवस्था के बारे में तो सोचा तक नहीं जाना चाहिए। राजनैतिक दलों से मुसलमानों को अधिक संख्या में टिकिट देने की अपीलें बेकार साबित हुई हैं। हां, हम इस बात पर अवश्य विचार कर सकते हैं कि कुछ निर्वाचन क्षेत्र, मुसलमानों के लिए आरक्षित कर दिए जाएं। हमारे देश की विधि-निर्माण संस्थाओं में देश के एक बड़े वर्ग का नगण्य प्रतिनिधित्व हो, यह स्थिति अस्वीकार्य है और अधिक दिनों तक नहीं चल सकती। हमारा अंतिम लक्ष्य ऐसे समाज का निर्माण होना चाहिए जिसमें व्यक्ति के धर्म, जाति और वर्ग का कोई महत्व ही न रह जाए। परंतु जब तक हम ऐसे आदर्श समाज का निर्माण नहीं कर पाते तब तक वंचित वर्गों के विशेष व्यवस्थाएं की जाना परम आवश्यक है। कहने की आवश्यकता नहीं कि "समान अवसर आयोग" का कोई विकल्प नहीं है और हमें इस दिशा में अपने प्रयास तेज करने चाहिए। न केवल मुसलमानों बल्कि सभी पिछड़े समुदायों को आगे बढ़ने के समान अवसर मिलने चाहिए।

इस उद्देश्य से नीति-निर्माण की राह में सबसे बड़ा रोड़ा हैं साम्प्रदायिक पार्टियां। ये पार्टियां सकारात्मक कदमों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करती हैं। वे लगातार यह आरोप लगाती हैं कि ये कदम  अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण के लिए उठाए जा रहे हैं और इनसे एक तरह की साम्प्रदायिकता फैलेगी। यह सच्चाई को उल्टी तरफ से देखने के समान है। समानता तभी आ सकती है जब असमानता खत्म हो। जब हम समानता की बात करते हैं तब हमें असमानता को दूर करने के लिए जरूरी कदम उठाने ही होंगे। बेशक, ये कदम अंतरिम होंगे और हमें एक ऐसे देश के निर्माण का संकल्प लेना होगा जिसमें किसी समुदाय की धर्म या जाति, उसकी प्रगति में बाधक न बने। इस मुद्दे पर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने के प्रयासों का मजबूती से मुकाबला किया जाना चाहिए। हमें यह समझना होगा कि सच्चे अर्थों में न्यायपूर्ण समाज की स्थापना, पिछड़े समुदायों को आगे बढ़ने के समुचित व समान मौके देकर ही की जा सकती है।

(मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण: अमरीश हरदेनिया)  

राम पुनियानी

राम पुनियानी(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे, और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)

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