बेचैन अयोध्या की एक गुजारिश
http://mohallalive.com/2010/09/30/yatindra-mishra-appeal-from-ayodhya/--
बेचैन अयोध्या की एक गुजारिश
♦ यतींद्र मिश्र
अयोध्या विवाद पर हाई कोर्ट के फैसले की दहलीज पर आखिरकार आज जब हम पहुंच ही गये हैं और इस फैसले को सुनने की भारतीय लोगों की बेचैनी जिस तरह चारों ओर दिखाई पड़ रही है, उससे कम से कम एक बात जरूर समझ में आती है कि अब जनता इस विवादित मसले को एक शक्ल, एक अंजाम, एक विराम देना चाहती है। ऐसे मौकों पर, जब अयोध्या से संबंधित इतने पुराने और न्यायालय में लंबित विवाद पर कोई विमर्श होने लगता है, तब मैं यह ठीक से नहीं जान पाता कि इसमें अयोध्या की कितनी भलाई छिपी है, जिसे हर बार मीडिया, राजनीतिक तंत्र, प्रशासन और इस मुद्दे से संबंधित पक्षकारों की दलीलें व जिरह ज्वलंत, प्रासंगिक या महत्वपूर्ण बना देती हैं।
मुद्दा यह नहीं है कि अयोध्या विवाद पर फैसला किसके पक्ष में जाता है। मुद्दा यह भी नहीं है कि इस फैसले को लेकर दूसरे या तीसरे पक्ष के लोग किस तरह का तर्क या प्रतिवाद रचते हैं। मुद्दा यह भी नहीं है कि हाई कोर्ट का फैसला किस तरह से राजनीतिक समीकरणों को आपस में गुत्थमगुत्था करके कोई सांप-सीढ़ी का खेल रचने वाला है। हमें यह समझना चाहिए कि मुद्दा दरअसल यह है कि क्या हम अपनी सबसे प्रासंगिक लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत रहते हुए न्यायालय के फैसले को बिना किसी मनोमालिन्य के सहज भाव से स्वीकार करने जा रहे हैं या नहीं? धर्मनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक मूल्यों की बात क्या सिर्फ संविधान में लिखे हुए दो सैद्धांतिक पद ही बने रहने वाले हैं या वाकई हम आगे बढ़कर इनको सच्चे अर्थो में चरितार्थ करने वाला एक प्रासंगिक प्रत्यय गढ़ने जा रहे हैं? यह अयोध्या के लोगों के लिए भी बड़ी जिम्मेदारी की बात है कि उन्हें इतिहास और यह प्रजातांत्रिक देश एक बार ऐसा मौका देने जा रहा है, जब वे यह बात सारी दुनिया में साबित कर सकें कि वे सबसे पहले इस देश के नागरिक हैं। दरअसल कोई भी विवाद, धार्मिक या राजनैतिक मताग्रह, हिंदू या मुस्लिम होकर रहने की शर्ते तथा अयोध्यावासी बनकर संकुचित होकर जीने और सोचने की हतप्रभ खरोचों से दूर, पहले वे भारतवासी हैं और उनकी आस्था संविधान में उसी तरह है, जिस तरह इस देश के किसी भी शहर या महानगर में रहने वाले नागरिकों की संवेदनाएं संविधान के प्रति रही हैं।
इस समय इस बात की चर्चा भी बेहद जरूरी लगती है कि रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद के मसले से अलग एक आम अयोध्यावासी के जीवन की सच्चाई सिर्फ यह विवाद कतई नहीं है। इस शहर से किये जाने वाले सारे रचनात्मक व सार्थक प्रयास, सौहार्द और मेल-मिलाप की नजीरें पता नहीं क्यों इस शहर के बाहर धुंधली नजर आती हैं या दिखायी जाती हैं? इलेक्ट्रानिक मीडिया भी अपनी टीआरपी बढ़ाने और अयोध्या को एक सहमे और आतंकित शहर के रूपक में ढालने के फेर में न जाने क्यों पड़ा रहता है, समझ में नहीं आता। वह इतना मासूम भी नहीं लगता कि उसे यह न दिखता हो कि अयोध्या और उससे सटा हुआ उसका सहोदर शहर फैजाबाद, दोनों मिलकर एक खुशहाल और तरक्कीपसंद जिंदगी जीने के हिमायती रहे हैं और उनकी जिंदगी पर्याप्त मिठास व नमक से भरपूर है। यहां के व्यक्ति के सपने, उसकी जीविका, स्वास्थ्य और शिक्षा को लेकर गतिविधियां किसी भी अखबार या इलेक्ट्रॉनिक चैनलों की पसंद पर कभी खरे उतरते दिखाई नहीं देते। शायद हम अयोध्या के लोगों को ही अपने घरों से बाहर निकलकर सबको यह बताना पड़ेगा कि यह गोस्वामी तुलसीदास और मीर अनीस के रचनात्मक स्पंदन का समन्वित शहर रहा है। समन्वय और त्याग की मिसाल के ये दोनों महत्वपूर्ण ऐतिहासिक लोग अगर अयोध्या और फैजाबाद को अपनी स्याही से अपने-अपने दौर में एकरंगी कर चुके हों, तो उनसे निकलने वाली बाद की पीढ़ी कैसे आपस में अमन-चैन से रहना पसंद नहीं करेगी?
क्या बार-बार हमें शपथपत्र देने की शक्ल में यह बताने की जरूरत है कि अयोध्या और फैजाबाद के लोग आपस में कितनी आत्मीयता से रहते आये हैं और जीवनपर्यंत ऐसे ही रहना चाहते हैं। अवध के नवाबों के सहयोग से बनी पवित्र हनुमानगढ़ी के आस-पास बिकने वाले सिंदूर, रामनामी, कलावा, बताशे, ढोल-मंजीरों की दुकानों में से कुछ दुकानें उन मुस्लिमों की भी हैं, जिनके बगैर हनुमानगढ़ी की दिनचर्या व आराधना पूरी नहीं होती। ठीक उसी तरह यहां दोनों शहरों की संधि पर मौजूद बड़ी बुआ और हजरत शीश की मजार पर मुस्लिमों से ज्यादा आवाजाही हिंदू श्रद्धालुओं की रही है। अयोध्या से रामचरितमानस का आरंभ यदि यहां की लोकभाषा में हुआ, तो फैजाबाद में ही पंडित बृजनारायण चकबस्त ने रामायण का उर्दू तर्जुमा करके पूरे देश को सौंपा। कभी-कभी मुझे यहां के एक आम नागरिक की हैसियत से यह लगता है कि इस शहर की खुशनुमा हरारत को नजदीक से महसूस करने का ईमानदार जतन बाहर का कोई व्यक्ति करना ही नहीं चाहता। इस शहर ने धीरे-धीरे बहुत कुछ गंवाया है। इस गंवा देने के फेर में हद तो तब हो जाती है, जब कई बार कुछ मुद्दों के उछलने पर अयोध्या अपनी पारम्परिक छवि को जीने या उसे एकदम से बदल देने की कशमकश के तौर पर महसूस करने लगती है। इधर एक बात का एहसास और गहरा हुआ है, जिससे आम अयोध्यावासी का मन भी क्षुब्ध रहने लगा है। वह यह कि पिछले दो दशकों से यहां पर आबादी से ज्यादा सुरक्षाबल दिखाई पड़ते हैं, जो हर समय किसी गली या नुक्कड़ पर चौकस और सशंकित खड़े पाये जाते हैं। यह स्थिति शर्मसार करती है कि हम अपनी छोटी-छोटी महत्वाकांक्षाओं को अपने दिलों में पाले हुए बेधड़क जी भी नहीं सकते। क्यों हम किसी विवाद के घटाटोप साये में सांस लेने को मजबूर हैं? गहन सुरक्षा के मद्देनजर 'हटो' या 'बचो' जैसी स्थिति से यहां का नागरिक अब अभ्यस्त हो चला है। पता नहीं कौन से धर्मग्रंथ या नीति की किताब होगी, जहां यह लिखा होगा कि ऐसे शहर के बाशिंदे, जो सौहार्द की भागीदारी में जीवन गुजार रहे हैं, उन्हें भी एक डरी-सहमी व्यवस्था के तहत रहने को मजबूर होना है।
अयोध्या-फैजाबादवासियों की ओर से यह एक अपील हो सकती है कि हम इस समाज और देश की सम्मानित लोकतांत्रिक व्यवस्था को यह बता सकें कि यहां के लोग न्यायपालिका के प्रति पर्याप्त आदर रखते हुए धैर्य और समन्वय की तमाम सारी सार्थक मुहिमों में पूरी अंतर्चेतना के साथ शामिल हैं और किसी भी अन्य शहर या महानगर के तरक्कीपसंद वजूद से बेहतर खुद का वजूद साबित कर सकते हैं। (हिंदुस्तान से उड़ाया गया लेख…)
(यतींद्र मिश्र। युवा कवि और संगीत रसिक प्राणी। अयोध्या राजघराने में पैदाइश। गायिका गिरिजा देवी और नृत्यांगना सोनल मानसिंह के जीवन प्रसंगों पर दो किताबें। उस्ताद बिस्मिल्ला खान पर सुर की बारादरी नाम की किताब। गुलजार की कविताओं का संचयन यार जुलाहे नाम से। कई पुरस्कार मिले हैं – मसलन रजा पुरस्कार और भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार आदि। उनसे yatindrakidaak@gmail.com पर संपर्क करें।)
हर बार इनके माथे ही क्यों फूटता है अयोध्या का ठीकरा
♦ अवनीश
अविनाशजी, मै आपको बनारस में अयोध्या के फैसले के मद्देनजर की जा रही तैयारियों की बाबत एक आलेख भेज रहा हूं। मुझे चंद्रिका ने आपका मेल दिया था। एक बार देख लें। ठीक लगे तो अपने ब्लॉग में जगह देवें। मै दो माह पहले तक ग्वालियर में बतौर उपसंपादक पीपुल्स समाचार में काम कर रहा था। लेकिन अब वहा से इस्तीफा देकर बनारस में स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहा हूं : अवनीश
राजनाथ की उजड़ी दुकान ने उसकी चटख मुस्कुराहट को बदरंग कर दिया है। अयोघ्या मामले की सुनवाई की पूर्वसंध्या पर शांति स्थापना को निकली पुलिस ने लंका (वाराणसी) स्थित उसकी दुकान उजाड़ दी। उसका चेहरा देख चंद दिनों पहले देखी फिल्म पीपली लाइव का उदास नत्था याद आ गया। महानगर की ऊंची इमारतों और शोर के बीच बैठा नियति के बारे में सोचता हुआ। लेकिन राजनाथ का अफसोस यह है कि न वह नेहरू के दौर का शंभु महतो है और न मनमोहन के दौर का नत्था। वह फुटपाथ पर चाय की दुकान लगाने वाला एक मामूली दुकानदार है। भारत का ऐसा आम आदमी, जो विकास के हर नमूने की कीमत अपनी रोजी लुटा कर चुकाता है। या कहा जाय जिसकी रोजी लूटने के बाद ही विकास की नींव में ईंट पड़ती है। सुंदरीकरण की कवायदों की भेंट भी वही चढ़ता है, सुरक्षा इंतजामों का सबसे तगड़ा रोड़ भी वही होता है। यही वजह होती है कि शहर की हर होनी के बाद पहला चूल्हा उसी के घर का बुझता है। लेकिन उसकी कहानी न 60 साल पहले कही गयी, न आज कही जा रही है।
फिलवक्त राजनाथ और उसके जैसे 100 से अधिक दुकानदारों की आजीविका आयोध्या मामले के फैसले के बाद होने वाले दंगों के मद्देनजर छीन ली गयी है। मायावती सरकार, केंद्र सरकार और ब्यूरोक्रेसी को ऐसा लग रहा है कि बाबरी मस्जिद की मिल्कियत के फैसले के बाद देश में विशेषकर उत्तर प्रदेश में दंगे भड़क सकते हैं। इसके कारण उत्तर प्रदेश के 44 जिलों को संवेदनशील घोषित कर दिया गया है। प्रदेश के अधिकाश हिस्सों को पुलिस, पीएसी और अर्द्धसैनिक बलों से पाट दिया गया है। बड़े शहरों और जिला मुख्यालयों को छोड़िए पुलिस के रूटमार्च तहसीलों और कस्बों तक हुए हैं। 'दंगो से हम सुरक्षित हैं' – यह बोध सरकार ने गांवों के स्तर तक पहुंचा दिया है। अखबारों में इन खबरों की कवरेज यों है मानो युद्ध की तैयारियां चल रही हैं। राजनाथ जैसे दुकानदार इस कवायद में ऐसे हल्के निशाने हैं, जिन्हें साध कर जनता को आसानी से डराया जा सकता है। इसलिए सरकार ने पहले इन्हें ही हटाया है। बाद के कदमों में प्रदेश में हर तरह के प्रदर्शनों, रैलियों और धरनों पर रोक लगा दी गयी है। प्रदेश में ऐसे हालात निर्मित कर दिये गये हैं मानो आपातकाल लगा हो।
अयोध्या (बाबरी विध्वंस) ने हमें मुंबई विस्फोट जैसे गहरे घाव दिये हैं। आंतकी हमलों और दहशत का अंतहीन सिलसिला अब भी जारी है। इसकी आड़ में आर्थिक नीतियों की कसी गयी चूलों में फंसा आम आदमी लगातार कराह रहा है। लेकिन पिछले 15 दिनों में मायावती और उनकी पुलिस ने एहतियातन जैसी तैयारियां की हैं, उन्होंने खौफ की नयी-नयी कहानियां गढ़ी हैं। लोग किसी आसन्न खतरे के कारण डरे हुए हैं। इन तैयारियों की कवायद में ही केंद्र सरकार ने भी कड़ी जोड़ दी है। प्रधानमंत्री ने देश के नाम अपील की है, अयोध्या के फैसले के बाद सभी लोगों को धैर्य और शांति कायम रखना जरूरी होगा। सभी लोगों में धैर्य और शांति बनी रहे, इसलिए ही देश भर में हाई एलर्ट जारी कर दिया गया है। 10 मिनट की नोटिस पर पहुंच जाने के लिए सुरक्षाबल तैयार किये गये हैं। अब हमें सोचना होगा कि क्या खतरा वाकई इतना बड़ा है, जैसी की तैयारियां की जा रही हैं या मायावती सरकार अथवा केंद्र सरकार भय दिखाकर किन्हीं और उद्देश्यों को पूरा करना चाह रही है।
यह पूरी तैयारी इस पूर्वधारणा पर आधारित है कि आम जनता सहिष्णु नहीं है और अयोध्या मामले में आने वाला फैसला जिस भी पक्ष के विरोध में जाएगा, वह विरोध में दंगे भड़का सकता है। हालांकि यह पूर्वधारणा भी जनता के बारे में गलत समझ का ही द्योतक है। यह वास्तविकता है कि भारतीय समाज में धर्म एक प्रतिनिधि चेतना है। लेकिन मौजूदा अर्थ प्रणाली ने इस मुल्क में संपन्नता और विपन्नता के कई स्तर भी पैदा किये हैं। उन स्तरों की भौतिक स्थितियां ऐसी नहीं कि किसी स्वतःस्फूर्त दंगे का हिस्सा बनें या दंगे को नेतृत्व दें। यदि भारत में दंगों का इतिहास देखें तो आम आदमी दंगों के शिकार के रूप में ही दिखेगा। वह कभी मुसलमान होगा, कभी सिख होगा और कभी मजलूम हिंदू। आम जनता को असहिष्णु मानने की धारणा ही सरकार की असफलता का प्रतीक है। भारत सरकार 60 साल से धर्मनिरपेक्षता को संविधान की अहम विशेषता मानती रही है। लेकिन इतने दिनों बाद भी सरकार को इतना विश्वास नहीं है कि जनता इस फैसले को न्यायिक प्रक्रिया की एक कडी़ मानकर स्वीकार करेगी और असहमत होने की स्थिति में उच्चतम न्यायालय से अपील करेगी। दरअसल आम जनता को धर्मनिरपेक्ष बनाने की ईमानदार कोशिश सरकार ने कभी नहीं की। हमारे यहां शिक्षा का ढांचा, प्रशासन और पुलिस की कार्यशैली ऐसी रही है कि उनसे सांप्रदायिकता को खाद-पानी ही मिलता रहा है।
उत्तर प्रदेश में जनता को असहिष्णु मानने जैसी धारणा के आधार पर काम करना क्या संकेत देती है? ऐसे आसार बन रहे हैं मानो जनांदोलनों के दमन के दौर में आम जनता के लिए बचा असहमति का रत्ती भर स्पेस भी समाप्त करने की कोशिश की जा रही है। पिछले एक साल में कई राजनीतिक गिरफ्तारियां हुई हैं। माफियाओं की गिरफ्तारी के मामले में भी पक्षपात किया जा रहा है। गंगा एक्सप्रेस वे, यमुना एक्सप्रेस वे जैसी योजनाओं के कारण धारा 144 का लागू होना आम बात हो गयी है। आसार तो यह भी जताये जा रहे हैं कि पिछले तीन सालों में अभिशासन के सभी मोर्चों पर असफल रहीं मायावती अयोध्या के फैसले को ध्रुवीकरण के नुस्खे के रूप में प्रयोग करना चाह रही है। हालांकि इसकी सच्चाई आने वाला समय तय करेगा।
संभवतः आज अयोध्या के कानूनी कुचक्र का अंत हो जाए। साथ ही उत्तर प्रदेश में पखवाड़े भर से लगा आंतरिक आपातकाल भी खत्म हो और राजनाथ और उस जैसे कई चाय, पान, सब्जियों, खोमचों और ठेले वालों की भट्ठियों से धुआं उठे, उनकी दुकानें फिर से गुलजार हों और उनके बुझ चुके चेहरों पर फिर रौनक लौटे। इस फैसले के साथ ही मायावती सरकार द्वारा की जा रही है युद्ध की तैयारियों को भी विराम लगे। कुछ होगा! क्या हो सकता है? कुछ होगा नहीं!! जैसी अड़ीबाज अटकलबजियां भी बंद हों और लोगों के भीतर के घर कर गयी अनिश्चितता का तनाव भी खत्म हो। जनता अपनी सहिष्णुता का परिचय एक बार फिर दे!
रामकुमार सिंह ♦ दिन भर की बहस शाम को तलब में तब्दील हुई। आत्मीय माहौल में थोड़ा पानी, थोड़ा सोडा, थोड़ी बर्फ और देश की अलग अलग डिस्टलरीज में तैयार माल को मिलाकर एक जादुई दुनिया का निर्माण शुरू किया गया।
आज मंच ज़्यादा हैं और बोलने वाले कम हैं। यहां हम उन्हें सुनते हैं, जो हमें समाज की सच्चाइयों से परिचय कराते हैं।
अपने समय पर असर डालने वाले उन तमाम लोगों से हमारी गुफ्तगू यहां होती है, जिनसे और मीडिया समूह भी बात करते रहते हैं।
मीडिया से जुड़ी गतिविधियों का कोना। किसी पर कीचड़ उछालने से बेहतर हम मीडिया समूहों को समझने में यक़ीन करते हैं।
नज़रिया »
यतींद्र मिश्र ♦ मुद्दा यह नहीं है कि अयोध्या पर फैसले को लेकर दूसरे या तीसरे पक्ष के लोग किस तरह का तर्क या प्रतिवाद रचते हैं। मुद्दा यह भी नहीं है कि हाई कोर्ट का फैसला किस तरह से राजनीतिक समीकरणों को आपस में गुत्थमगुत्था करके कोई सांप-सीढ़ी का खेल रचने वाला है। हमें यह समझना चाहिए कि मुद्दा दरअसल यह है कि क्या हम अपनी सबसे प्रासंगिक लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत रहते हुए न्यायालय के फैसले को बिना किसी मनोमालिन्य के सहज भाव से स्वीकार करने जा रहे हैं या नहीं? धर्मनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक मूल्यों की बात क्या सिर्फ संविधान में लिखे हुए दो सैद्धांतिक पद ही बने रहने वाले हैं या वाकई हम आगे बढ़कर इनको सच्चे अर्थो में चरितार्थ करने वाला एक प्रासंगिक प्रत्यय गढ़ने जा रहे हैं?
सिनेमा »
डेस्क ♦ डीएवी गर्ल्स कॉलेज, यमुनानगर में एक अक्टूबर से आयोजित तीसरे हरियाणा अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में भारतीय फिल्म जगत की कई बड़ी हस्तियां शिरकत करेंगी। समारोह के निदेशक अजित राय ने कॉलेज में ही आयोजित एक प्रेस कांफ्रेंस में बताया कि इसमें भारत और विदेशों की लगभग 50 फिल्में दिखायी जाएंगी। उन्होंने कहा कि इस फेस्टिवल का उदघाटन दादा साहेब फाल्के अवार्ड से सम्मानित सुप्रसिद्ध फिल्मकार अडूर गोपालकृष्णन करेंगे। अडूर की मलयालम फिल्म शेडो किल के प्रदर्शन से फेस्टिवल की शुरुआत होगी। यह समारोह सात अक्टूबर तक चलेगा, जिसमें फ्रांस, जर्मनी, इटली, ब्रिटेन, अमरीका, पोलैंड, रूस, जापान, चीन, ईरान, स्वीडन, फिलीपिन्स, हांगकांग, डेनमार्क, हंगरी, नार्वे, अर्जेंटीना, ब्राजील आदि देशों की फिल्मों का प्रदर्शन होगा।
नज़रिया »
अवनीश ♦ यह पूरी तैयारी इस पूर्वधारणा पर आधारित है कि आम जनता सहिष्णु नहीं है और अयोध्या मामले में आने वाला फैसला जिस भी पक्ष के विरोध में जाएगा, वह विरोध में दंगे भड़का सकता है। हालांकि यह पूर्वधारणा भी जनता के बारे में गलत समझ का ही द्योतक है। यह वास्तविकता है कि भारतीय समाज में धर्म एक प्रतिनिधि चेतना है। लेकिन मौजूदा अर्थ प्रणाली ने इस मुल्क में संपन्नता और विपन्नता के कई स्तर भी पैदा किये हैं। उन स्तरों की भौतिक स्थितियां ऐसी नहीं कि किसी स्वतःस्फूर्त दंगे का हिस्सा बनें या दंगे को नेतृत्व दें। यदि भारत में दंगों का इतिहास देखें तो आम आदमी दंगों के शिकार के रूप में ही दिखेगा। वह कभी मुसलमान होगा, कभी सिख होगा और कभी मजलूम हिंदू।
नज़रिया, विश्वविद्यालय »
राजकिशोर ♦ इधर विभूति जी को कुछ निकट से जानने का अवसर मिला। पहले मैं उनके बारे में वही सब सोचता था जो मोहल्ला लाइव में आता था। (काश, अविनाश अपनी प्रतिभा का कुछ सृजनात्मक उपयोग करते। यह अभी भी संभव है। उन्हें इस बारे में कुछ आत्मपरीक्षण करना चाहिए।) इसके साथ ही, ऐसे लोगों से बातचीत करने के कई अवसर मिले, जिनमें तटस्थ होकर सोचने की क्षमता बची हुई है। अब यह दावा करते हुए मुझे हिचकी भर भी हिचक नहीं है कि विभूति नारायण राय मूलतः अच्छे और भावुक आदमी हैं और जान-बूझ कर किसी का बुरा करना उनके स्वभाव में नहीं है। इसलिए नहीं कि वर्धा विश्वविद्यालय में मैं भी राइटर-इन-रेडिडेंस हो गया हूं। बल्कि इसलिए कि वे मुझे सचमुच ऐसे ही लगते हैं।
सिनेमा »
अनीश अंकुर ♦ ओमपुरी ने 'वीकली-हाट बाजार' को सार्थक सिनेमा का उदाहरण बताया। सीमा कपूर को दर्शकों ने बधाई देने के साथ-साथ कुछ सवाल भी पूछे। सीमा कपूर ने बताया कि उन्होंने मात्र दो करोड़ रुपये में यह फिल्म बनायी है जो कि आजकल की महंगाई के हिसाब से काफी सस्ती मानी जाएगी। जब इस पर चर्चा चली तो संजय सहाय ने बताया कि 1993 में गौतम घोष द्वारा बनी 'पतंग' 40 लाख में बनायी गयी थी। ओमपुरी पहली बार गया उसी फिल्म के दौरान आये थे। ओमपुरी को गया के डीएम संजय सिंह ने एक मोमेंटो प्रदान किया। ओमपुरी ने थोड़ी चुटकी लेने के अंदाज में कहा कि भाई गया इतना एतिहासिक शहर है, सारी दुनिया से लोग आते हैं, देश भर के लोग पिंडदान यहां कराते हैं पर यहां की सड़कें इतनी क्यों खराब हैं?
मोहल्ला रांची »
डॉ विष्णु राजगढ़िया ♦ समय आ गया है जब सूचना आयोगों की भूमिका पर गंभीर चर्चा हो और एक कारगर रास्ता निकले। देश भर के सूचनाधिकार कार्यकर्त्ता विभिन्न रूपों में इस पर सवाल कर रहे हैं। लिहाजा, स्वयं सूचना आयुक्तों का कर्तव्य बनता है कि इस दिशा में कारगर पहल हो। हमें उम्मीद है कि देश और राज्यों में ऐसे मुख्य सूचना आयुक्तों, सूचना आयुक्तों की कमी नहीं जो इस पद को महज पैसे, पावर और प्रतिष्ठा की नौकरी नहीं बल्कि इस लोकतंत्र और इसके नागरिक के प्रति एक दायित्व के बतौर देखते होंगे। ऐसे सभी मुख्य सूचना आयुक्तों/सूचना आयुक्तों से निवेदन है कि वह 12 अक्तूबर 2010 को सूचना कानून की पांचवीं वर्षगांठ पर निम्नांकित बिंदुओं की स्वयंघोषणा करें।
नज़रिया »
अजेय कुमार ♦ आज विभूति-कालिया का विरोध करने वालों में निश्चित तौर पर वे लोग भी शामिल हैं, जिनको उनसे अपने कोई पुराने हिसाब-किताब चुकता करने हैं। साहित्यकारों में और विशेषकर हिंदी के साहित्यकारों में आपसी गुटबाजी और द्वेष के कारण धड़ेबंदी की पुरानी परंपरा है। यहां अक्सर सौदेबाजी होती है और उसके आधार पर लोगबाग अपनी पोजीशन बदलते रहते हैं और कभी-कभी पता नहीं चलता कि कौन किसके खेमे में है। यह इस बहस का निंदनीय पहलू है। बेशक अधिकांश लेखिकाओं व लेखकों ने केवल सैद्धांतिक प्रश्नों को ही तरजीह दी है। परंतु एक भ्रष्ट व्यवस्था में आखिरकार सत्तासीनों का अपना एक खौफ होता है। इसी खौफ ने इस विवाद में कई जेनुइन लेखकों को चुप रहने पर विवश कर दिया है।
Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/
No comments:
Post a Comment