आम जनता की सेहत के लिए डाक्टर भी हैं,हमारे उनके साथ खड़ा होने की जरुरत है।
सत्ता, बाजार, सियासत और बिजनेस से हम इस मौत के मंजर को बदलने में कोई मदद मिलने वाली नहीं है।निजी तौर पर किसी के लिए भी दो चार मामलों में मदद करने की हालत नहीं बनती है।जनपक्षधर जन संगठन ही मौत का यह मंजर बदल सकते है,बशर्ते कि उनसे जुड़े लोग इसकी पहल करें।
पलाश विश्वास
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14/10/2011 - shemaroovintage द्वारा अपलोड किया गया
Dr. Kotnis Ki Amar Kahani - Dr Kotnis ki Amar Kahani is based on the real life story of Dr Dwarkanath S .
मौत सिरहाने इंतजार कर रही हो और मौत का यह मंजर सार्वजनिक हो,तो जिंदगी दर्द का सबब बन जाता है,जिससे रिहाई मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।
पूरे रामराज्य में सरकारी गैरसरकारी में यह मौत का मंजर बागों में बहार है और ख्वाबों के रंग बिरंगे सुनहले दिन हैं।
ममता बनर्जी का निजी अस्पतालों और नर्सिंग होम के नुमाइंदों के साथ गुफ्तगूं उनकी स्टाइल में पालिटिकल मास्टर स्ट्रोक है क्योंकि यह टीवी पर लाइव रहा है।लोगों को अपने भोगे हुए यथार्थ के रिसते हुए जख्म पर मलहम लगा महसूस हो तो ताज्जुब की बात नहीं।लेकिन कब्रिस्तान हो या श्मशान घाट,सियासत के कारिंदे उसके नजारे बदल नहीं सकते।
स्वास्थ्य जब बिजनेस है, हब है, टुरिज्म है और अरबों का निवेश का मामला है तो स्टेंट की कीमत पचासी फीसद कम होने के बावजूद दिल के मरीजों को इलाज में राहत नहीं है।जीवन रक्षक जेनरिक दवाइयां बेहद सस्ती होने के बावजूद नूस्खे पर महंगी आयातित दवाइयां लिखने वाले लोग बेहद धार्मिक हैं,कहना ही होगा।
ममता बनर्जी ने अपने लाइव शो में संवैधानिक पद पद से बोलते हुए तमाम आरोपों की पुष्टि भी कर दी है।जाहिर है कि अस्पतालों और नर्सिंग होमों में बिना जरुरी महंगी जांच पड़ताल,गैर जरुरी आपरेशन,मृत्यु के बाद भी आईसीयू और वेंटिलेशन का पांच सितारा बिल से लेकर अंग प्रत्यंग का कारोबार और नवजात शिशुओं की तस्करी जैसे तमाम गोरखधंधे में आम जनता की सेहत का कोई माई बाप नहीं है।
मौत से रहम की भीख शायद मांगी भी जा सकती है,लेकिन लाचार दर्द से कोई रिहाई नहीं है।खासकर तब जब इलाज ही लाइलाज बनाने का बंदोस्त है चाकचौबंद।
इस देश में आम जनता की सेहत की देखभाल का कोई इंतजाम नहीं है।
मलाईदार नागरिकों का स्वास्थ्य बीमा जरुर होता है,लेकिन वे भी अपनी सेहत की जांच पड़ताल कराने की हालत में नहीं होते।
नौकरी में रहते हुए कंपनी की तरफ से हमारा भी सालाना बीमा हुआ करता था।लेकिन बीमा का लाभ उठाने के लिए महंगे अस्पताल और नर्सिग होम ही सूचीबद्ध होने की वजह से सहकर्मियों और उनके परिजनों के बीमार पड़ने के बाद ऐसे चिकित्सा केंद्र में भरती होने की स्थिति में पहले ही दिन बीमा की रकम खत्म होने के बाद जो खर्च जेब से भरने पड़े,उस अनुभव के मद्देनजर हमने उसका लाभ उठाने की कोशिश कभी नहीं की ।हमारे और आम लोगों के इस अनुभाव के बारे में दीदी ने भी कहा है।
बहरहाल हमेशा सस्ते और सरकारी अस्पतालों में जाकर इलाज कराने का विकल्प हमने चुना।
स्वास्थ्य बीमा भी हेल्थ बिजनेस और हेल्थ हब की स्ट्रेटेजिक मार्केटिंग और रोजगार देने वाली कंपनियों की इस बिजनेस में हिस्सेदारी में हिस्सेदारी का किस्सा है।
डा.कोटनीस की अमर कहानी हर भारतीय को मालूम होनी चाहिए।जिन्हें इस बारे में खास पता नहीं है,वे जिंदगी चैनल पर रात आठ बजे इन दिनों दिखाये जा रहे दक्षिण कोरियाई सीरियल डीसेंजेस आफ सन जरुर देखाना चाहिए।यह एक महिला डाक्टर और सैनिक अफसर की प्रेमकथा है।सेना में युद्ध पारिस्थितिकी के मुकाबले जाति धर्म नस्ल देश का भेदभाव किये बिना मनुष्य की जान बचाने के मिशन की कथा यह है।स्वदेश से दूर युद्धक्षेत्र में युद्ध,मादक कारोबार,अमेरिकी हस्तक्षेप, सीआईए के खेल,राजनीति,राजनय, आतंकवाद,भूकंप और महामारी के मध्य कदम कदम पर साथ साथ पीड़ितों,उत्पीड़ितों ,वंचितों को बचाने के मिशन में दोनों का प्रेम साकार है।
किन मुश्किल परिस्थितियों में हर जोखिम और अविराम युद्ध परिस्थितियों में कोई डाक्टर मनुष्यता के मिशन के प्रति सबकुछ न्योच्छावर कर सकता है,कुल मिलाकर यह कथा है।
हकीकत में समाज में ऐसे डाक्टरों की कमी नहीं है।
बंगाल में जूनियर डाक्टरों का प्रगतिशील संगठन और चिकित्सकों का आंदोलन इसी दिशा में दशकों से काम कर रहे हैं।बाकी देश में सर्वत्र ऐसे डाक्टर होंगे।
मेरे चाचा डा.सुधीर विश्वास एक मामूली आरएमपी डाक्टर थे,जो पचास और साठ के दशक में नैनीताल की पूरी तराई भाबर पट्टी में मेहनतकशों का इलाज करते थे।साठ के दशक में वे असम में दंगाग्रस्त इलाके में दंगापीड़ितों के इलाज के लिए असम भी गये थे।
भोपाल गैस त्रासदी के बाद कोलकाता और मुंबई के अलावा देश भर के डाक्टर वर्षों तक वहां गैस पीड़ितों के इलाज में लगे रहे और आज भी उनके बीच कुछ डाक्टर काम कर रहे हैं।डां,गुणधर बर्मन भी जरुरतमंदों के इलाज में जिंदगी बिता दी।हर शहर,कस्बे और देहात में भी ऐसे अनेक डाक्टर हैं,जिनके साथ मिलकर महंगे और गैरवैज्ञानिक मुनाफाखोर इलाज से आम जनता को बचाया जा सकता है और नियमित सेहत की देखभाल से गंभीर बीमारियों और संक्रामक रोगों से रोकथाम भी हो सकती है।
छत्तीसगढ़ का शहीद अस्पताल मेहनतकशों का बनाया हुआ अस्पताल है। छत्तीसगढ़ में डाक्टर विनायक सेन भी हैं।
अभी मुझे तेज सरदर्द हो रहा है।जबरन लिख रहा हूं।
इन दिनों जरुरी बातें लिखने में भी हमारी दिहाड़ी खराब होती है क्योंकि अनुवाद का काम रोक देना होता है,जिसकी वजह से मैं इन दिनों कहीं आता जाता नहीं हूं।
सविता बाबू कई दिनों से बेचैन थीं कि उनकी रसोई में मदद करने वाली शंकरी का पति गंभीर रुप से बीमार है तो आज दिन में बैरकपुर में उनके घर हो आया।शंकरी की उम्र 36 साल है और उसके पति तारक की उम्र 46 साल।इकलौती बेटी टीनएजर है और बीए आनर्स प्रथम वर्ष की छात्रा है।
2012 से पेशे से मछली बेचनेवाले तारक को हाई प्रेशर और मधुमेह की बीमारी है।हाल में पता चला है कि उसका एक गुर्दा सड़ गया है तो दूसरा गुर्दी भी करीब करीब खराब हो चुका है।वह डायलिलिस कराने की हालत में भी नहीं है।सरकारी अस्पतालों में भी डायलिसिस का खर्च मेहनतकशों के लिए बहुत महंगा है और वे अंग प्रत्यारोपण के बारे में सोच भी नहीं सकते।पिछले तीन दिनों में दो बार उसकी हालत बिगड़ी है और सरकारी अस्पताल में उसका इलाज हो नहीं सका है।
तारक की भाभी का हाल में ब्रेन स्ट्रोक हुआ था और हम जब शंकरी के वहां थे तो खबर आयी कि उसकी बहन की पति के पैर पर स्लैब गिरा है और वह जख्मी हो गया है।वह इमारत बनाने के काम में मजदूर है और जाहिर है कि उसका कोई बीमा नहीं है।
सविता ऐसे मामलों में सोदपुर में हर कहीं दौड़ती रहती है और निजी तौर पर मदद करती है।हमारी दिहाड़ी का ज्यादातर हिस्सा इसी मद में खर्च हो जाता है।इसके अलावा हम कुछ कर भी नहीं सकते हैं।मगर निजी मदद से यह मसला सुलझने वाला नहीं है जबकि व्यापक पैमाने पर जनता की देखभाल का इंतजाम जनता की ओर से करने का कोई काम हम अकेले अकेले नहीं करते हैं।
सत्ता, बाजार, सियासत और बिजनेस से हम इस मौत के मंजर को बदलने में कोई मदद मिलने वाली नहीं है।निजी तौर पर किसी के लिए भी दो चार मामलों में मदद करने की हालत नहीं बनती है।
जाहिर है कि सत्ता और राजनीति से अलग जनपक्षधर जन संगठन ही मौत का यह मंजर बदल सकते है,बशर्ते कि उनसे जुड़े लोग इसकी पहल करें।
हाल में वनगांव इलाके में अपनी फुफेरी बहन के घर गया था।उनका बेटा छत्तीसगढ़ में ठेके पर निर्माण कार्य में लगी था और वहां बीमार पड़ जाने से उसकी मौत हो गयी।करीब 44 साल के उस बाजे की लाश देख आनेके बाद दूसरी मर्तबा वहीं गया तो गयी तो कुछ ही दूर नोहाटा में जोगेद्र नाथ मंडल के कार्यक्षेत्र में उस दीदी की बेटी के घर भी गया।उसके पति के भी गुर्दे खराब हो गये हैं और प्रत्यारोपण के लिए बीस लाख रुपये का पैकेज बताया जा रहा है।फिर बीस लाख रुपये खर्च करने के बावजूद बच जाने की गारंटी नहीं है।जाहिर है कि उनके पास वे पैसे कभी नहीं होने वाले हैं।
घर बार जमीन जायदाद बेच देने के बावजूद अस्पतालों के गोरखधंधे में इलाज हो नहीं पाता।दीदी ने अस्पतालों और नर्सिंग होमों का किस्सा लाइव बताकर यह साबित कर दिया है कि यह कितनी भयंकर महामारी है।
वक्त पर प्रेशर और शुगर का पता चले और इलाज हो तो इसतरह दिल और गुर्दे की बीमारियां मेहनतकश तबके में महामारी नहीं होती।
इसके लिए बहुत अत्याधुनिक अस्पतालों की जरुरत भी नहीं है।सरकारी अस्पतालों में वैसे भी डाक्टर और नर्स कम हैं।
इनमें से ज्यादातर निजी अस्पतालों और नर्सिंग होम में पाये जाते हैं तो बाकी बचे लोग भीड़ के इलाज के लिए नाकाफी हैं।ऐसे में जब वे गंभीर और आपातकालीन मरीजों का इलाज बी कर नहीं पा रहे हैं तो उनसे मेहनतकश लोगों की सेहत की देखभाल की उम्मीद नहीं की जा सकती।
बुनियादी स्वास्थ्य सेवा और सेहत की जांच पड़ताल के लिए स्वास्थ्य केंद्र पर्याप्त होते हैं।साठ, सत्तर और अस्सी के दशक में भी यूपी,उत्तराखंड और बिहार के अस्पतालों में बिना किसी बुनियादी ढांचा के आम लोगों के व्यापक पैमाने पर इलाज और उनकी सेहत की देखभाल के नजारे हमने देखे हैं।
अब पिछले दिनों बसंतीपुर से फोन आया कि रुद्रपुर के मेडिकल कालेज अस्पताल में लेडी डाक्टर रात को नहीं होती,यह हमारे लिए हैरतअंगेज खबर है।
उस अस्पताल में हमने बचपन से स्त्री रोग विभाग में बेहतरीन काम होते देखा है।इसके अलावा तराई के कस्बाई अस्पतालों में गदरपुर,बाजपुर जैसे देहात में जटिल से जटिल आपरेशन डाक्टरों को अत्यंत कुशलता के सात करते देखा है।लेडी डाक्टर वाली यह जानकारी हमारे लिए किसी सदमे से कम नहीं है।
तकीनीकी तौर पर और संरचना के तौर पर उस मुकाबले हजार गुणा तरक्की के बावजूद बड़े महानगरों में भी मेहनतकशों को क्या गिनती,मलाईदार तबके के नागरिकों की भी सेहत की देखभाल तो क्या मामूली सी मामूली शिकायत के इलाज का कोई इंतजाम नहीं है।
प्रतिबद्ध डाक्टरों का साथ हम दें और अपने अपने संगठन की तरफ से हम उनके साथ खड़े हों तो आम लोगों के लिए देशभर में स्थानीय सामान्य उपक्रम और बिना किसी पूंजी निवेश के वैज्ञानिक तरीके से तर्कसंगत इलाज के लिए स्वास्थ्य केंद्र बड़े पैमाने पर खोले जा सकते हैं जहां मेहनतकशों की सेहत की देखबाल नियमित की जा सके।
ऐसे प्रयोग हो भी रहे हैं और मिशन बतौर डाक्टरों की अच्छी खासी तादाद इसके लिए तैयार भी हैं।सरकारी और निजी जन स्वास्थ्य के विकल्प के बारे में सोचकर ही हम ये हालात बदल सकते हैं और यह एकदम असंभव भी नहीं है।बंगाल में ऐसे प्रयोग चल भी रहे हैं।मसलन डा.पुण्यव्रत गुण के अनुभव पर गौर करेंः
शहीद अस्पताल की प्रेरणा से जब बेलुड़ में इंदो जापान स्टील के श्रमिकों ने 1983 में श्रमजीवी स्वास्थ्य परियोजना का काम शुरु किया,तब उनके साथ हमारा समाजसेवी संगठन पीपुल्स हेल्थ सर्विस एसोसिएशन का सहयोग भी था।हाल में डाक्टर बना मैं भी उस स्वास्थ्य परियोजना के चिकित्सकों में था।
मैं शहीद अस्पताल में 1986 से लेकर 1994 तक कुल आठ साल रहा हूं।1995 में पश्चिम बंगाल लौटकर भिलाई श्रमिक आंदोलन की प्रेरणा से कनोड़िया जूटमिल के श्रमिक आंदोलन के स्वास्थ्य कार्यक्रम में शामिल हो गया।चेंगाइल में श्रमिक कृषक स्वास्थ्य केंद्र, 1999 में श्रमजीवी स्वास्थ्य उपक्रम का गठन,1999 में बेलियातोड़ में मदन मुखर्जी जन स्वास्थ्य केंद्र,2000 में बाउड़िया श्रमिक कृषक स्वास्थ्य केंद्र, 2007 में बाइनान शर्मिक कृषक मैत्री स्वास्थ्य,2006-7 में सिंगुर नंदीग्राम आंदोलन का साथ,2009 में सुंदरवन की जेसमपुर स्वास्थ्य सेवा,2014 में मेरा सुंदरवन श्रमजीवी अस्पताल के साथ जुड़ना,श्रमजीवी स्वास्थ्य उपक्रम का प्रशिक्षण कार्यक्रम,2000 में फाउंडेशन फार हेल्थ एक्शन के साथ असुख विसुख पत्रिका का प्रकाशन,2011 में स्व्स्थ्येर वृत्ते का प्रकाशन --यह सबकुछ असल में उसी रास्ते पर चलने का सिलसिला है,जिस रास्ते पर चलना मैंने 1986 में शुरु किया और दल्ली राजहरा के श्रमिकों ने 1979 में।